राजीव गांधी के हत्यारे को सुप्रीम कोर्ट ने क्यों छोड़ा, यहां समझें विस्तार से

Why did the Supreme Court leave Rajiv Gandhi's killer, understand here in detail
Why did the Supreme Court leave Rajiv Gandhi's killer, understand here in detail
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नई दिल्ली : हत्या के आरोप में फांसी, 11 साल की देरी पर दया याचिका का निपटारा, फांसी उम्रकैद में बदलती है और अब रिहाई का फैसला आया है। राजीव गांधी हत्याकांड में दोषी ठहराए गए ए.जी. पेरारिवलन की यही पूरी कहानी है। उनकी रिहाई का रास्ता उसी दिन साफ हो गया था जब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा था कि अगर जेल में कम समय की सजा काटने वाले लोगों को रिहा किया जा रहा है तो इस मामले में क्यों नहीं? आखिरकार आज देश की सबसे बड़ी अदालत ने राजीव गांधी के हत्यारे पर ‘सुप्रीम’ फैसला ले लिया। उम्रकैद की सजा पाए 31 साल से जेल में बंद दोषी ए.जी. पेरारिवलन को रिहा करने का सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है। न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव की अध्यक्षता वाली पीठ ने अनुच्छेद 142 के तहत अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल किया है। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के फैसले को गलत बताते हुए स्पष्ट कहा था कि वह राज्य मंत्रिमंडल के परामर्श से बंधे हुए हैं। आइए इस बहुचर्चित मामले की कहानी समझते हैं।

सुप्रीम कोर्ट का आदेश
पेरारिवलन को रिहा करने का आदेश देते हुए सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा है, ‘राज्य मंत्रिमंडल ने प्रासंगिक विचार-विमर्श के आधार पर फैसला किया था। अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल करते हुए, दोषी को रिहा किया जाना उचित होगा।’ संविधान का अनुच्छेद 142 उच्चतम न्यायालय को यह विशेषाधिकार देता है, जिसके तहत संबंधित मामले में कोई अन्य कानून लागू ना होने तक उसका फैसला सर्वोपरि माना जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारे ए. जी. पेरारिवलन को कोर्ट ने यह देखते हुए 9 मार्च को जमानत दे दी थी कि सजा काटने और पैरोल के दौरान उसके आचरण को लेकर किसी तरह की शिकायत नहीं मिली।

तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर में 21 मई 1991 को चुनावी रैली के दौरान एक महिला आत्मघाती हमलावर ने खुद को विस्फोट से उड़ा लिया था जिसमें राजीव गांधी मारे गए थे। महिला की पहचान धनु के तौर पर हुई थी। कोर्ट ने मई 1999 के अपने आदेश में चारों दोषियों पेरारिवलन, मुरुगन, संथन और नलिनी को मौत की सजा बरकरार रखी थी। शीर्ष अदालत ने 18 फरवरी 2014 को पेरारिवलन, संथन और मुरुगन की मौत की सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया था। कोर्ट ने केंद्र सरकार के उनकी दया याचिकाओं के निपटारे में 11 साल की देरी के आधार पर फांसी की सजा को उम्रकैद में बदलने का निर्णय किया था।

मामले में आया पेच
उम्रकैद की सजा हुई तो रिहाई की मांग उठने लगी। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन ने सभी हत्यारों को 30 साल की सजा काटने के बाद रिहाई की मांग की। राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखी गई। इधर, राज्य मंत्रिमंडल ने फैसला किया और तमिलनाडु के राज्यपाल से सिफारिश की गई। लेकिन गवर्नर ने फाइल राष्ट्रपति के पास दिल्ली भेज दी और मामला लटक गया।

कैदी, राज्य और रिहाई का गणित
दरअसल, कैदी राज्य सरकार की निगरानी में होता है इसलिए राज्य की जिम्मेदारी अधिक होती है। अगर राज्य सरकार सजा कम करने की अपील करे तो उसे सुन लिया जाता है। यह भी समझना महत्वपूर्ण है कि उम्रकैद 16 साल या 30 साल या हमेशा के लिए हो सकती है लेकिन 14 साल से कम नहीं हो सकती है। राज्य सरकार को सुनिश्चित करना होता है कि उम्रकैद की सजा वाला अपराधी 14 साल से पहले रिहा न हो।

30 साल एक लंबा वक्त होता है। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो इस कालखंड (30 साल से ज्यादा) की चर्चा प्रमुखता से की गई। शीर्ष अदालत को भी कहना पड़ा कि जब जेल में कम समय की सजा काटने वाले लोगों को रिहा किया जा रहा है, तो केंद्र सरकार पेरारिवलन को रिहा करने पर सहमत क्यों नहीं हो सकती? सुप्रीम कोर्ट केंद्र के उस जवाब से भी नाराज हुआ जिसमें कहा गया था कि तमिलनाडु के राज्यपाल ने दोषी को रिहा करने के राज्य मंत्रिमंडल के फैसले को राष्ट्रपति को भेज दिया है जो दया याचिका पर निर्णय लेने के लिए सक्षम अथॉरिटी हैं।

इस पर, सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि प्रथम दृष्टया राज्यपाल का यह फैसला गलत और संविधान के खिलाफ है क्योंकि वह राज्य मंत्रिमंडल की सिफारिश से बंधे हैं। उनका फैसला संविधान के संघीय ढांचे पर प्रहार करता है। उसी समय न्यायमूर्ति एलएन राव और न्यायमूर्ति बी आर गवई की पीठ ने अपनी मंशा स्पष्ट कर दी थी कि वह पेरारिवलन की दलील को स्वीकार कर अदालत के पहले के फैसले के अनुरूप उसे रिहा कर देगी। आज वही हुआ।