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नई दिल्ली। जम्मू-कश्मीर पुलिस कमांडो विंग की जांबाज अफसर। स्पेशल ऑपरेशंस ग्रुप (SOG) की पहली महिला कमांडो में से एक जिन्हें शुरुआती सालों में ही बहादुरी के लिए राष्ट्रपति पुलिस मेडल से सम्मानित किया गया। वह राजौरी और पुंछ जिलों में हिजबुल और लश्कर के खूंखार आतंकियों से सीधी टक्कर ले चुकी हैं। उन्होंने कितने आतंकियों को मार गिराया ये खुद उन्हें याद नहीं है। इसने उनकी पहचान एनकाउंटर स्पेशलिस्ट के तौर पर बना दी। हालांकि, सबकुछ इतना आसान नहीं था। यह पुरुषों के दबदबे वाला क्षेत्र था। कुछ हद तक आज भी यह धारणा है। इसी कारण फील्ड ड्यूटी में महिलाओं को तैनात नहीं किया जाता है। डीएसपी शाहिदा जैसी महिलाएं उस धारणा को ध्वस्त करने में लगी हैं। शुरुआत में एक नाकाम ऑपरेशन के बाद सीनियर ऑफिसर ने उनसे कहा था- लड़कियों का काम चूल्हा-चौका और बर्तन माजना है। मर्दों के काम में हाथ डालोगी तो ऐसा ही होगा। यह बात शाहिदा परवीन के दिल में चुभ गई। उस दिन उन्होंने खुद से एक वादा किया था। इसके बाद वह करियर में ऐसे दौड़ीं कि पीछे मुड़कर नहीं देखा।
एक टीवी शो में शाहिदा परवीन ने अपने से जुड़ी कई बातें बताईं। 1997 से 2002 के बीच शाहिदा राजौरी और पुंछ जिलों में तैनात रहीं। कैसे उन्होंने इन ऑपरेशनों में जाना शुरू किया? इसके जवाब में शाहिदा ने कहा कि सीनियर ऑफिसर उन्हें ऑपरेशनों में जाने के लिए नहीं कहते थे। अलबत्ता, उनसे जानकारी जुटाने के लिए कहा जाता था। वे कहते थे- ‘तुम इनफॉरमेशन लेकर आओ उस पर ऐक्ट करेंगे। तुम्हें कोई खतरा नहीं है।’ सीनियर अधिकारियों को लगता था, ‘लड़कियां कमजोर होती हैं। ये डरेंगी। कहां जाएंगी ये एनकाउंटर में?’
पहला ऑपरेशन रहा था नाकामयाब
शाहिदा को याद है जब पहली बार वह इनफॉरमेशन लाने में सफल हुई थीं। उन्होंने फैसला किया था कि वह अपने सीनियर को इसे पास नहीं करेंगी। शो में उन्होंने बताया, ‘जिस इनफॉरमेशन के लिए मैंने दो-तीन महीने लगा दिए वो किसी और को दे दूं क्योंकि ये लोग सोचते हैं लड़की क्या जाएगी एनकाउंटर में? मैं अपनी टीम के साथ चल दी।’ यह उनका पहला एनकाउंटर था। यह नाकाम साबित हुआ था। हालांकि, वह सिर्फ उनकी वजह से विफल नहीं हुआ था। अलबत्ता, उनके पास समर्पित टीम नहीं थी। सीनियर ऑफिसर फिर भी बहुत गौरवांवित थे। लेकिन, एक दूसरे सीनियर ऑफिसर ने बोला- ये क्या लड़कियों का काम है? मर्दों के काम में हाथ डालोगी तो ऐसा ही होगा।
शाहिदा ने उसी दिन अपने से वादा किया कि एक दिन केवल इसको नहीं, इस स्टेट को नहीं, पूरी दुनिया देखेगी क्या कर सकती है यह बर्तन माजने वाली। उसके बाद उन्होंने कभी मुड़कर नहीं देखा।
पुलिस फोर्स में जुड़ने से पहले शाहिदा को कई तरह की सामाजिक अड़चनों का सामना करना पड़ा। वह पुलिस एग्जाम क्वालिफाई करने के लिए फिजिकल ट्रेनिंग की खातिर सुबह 4 बजे उठ जाया करती थीं। उनके मुताबिक, ‘आतंकियों से डर नहीं लगता था। लोगों की बातों से लगता था कि वे क्या कहेंगे इनकी बेटी सुबह-सुबह भाग रही थी।’
शाहिदा परवीन को नहीं लगता है मौत से डर
फोर्स ज्वाइन करने के बाद लोगों का नजरिया बदल गया। फिर उनका पूरा फोकस अपनी ड्यूटी पर हो गया। शाहिदा कहती हैं कि अगर उन्होंने लोगों की बातों पर ध्यान दिया होता तो वह सर्विस में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पातीं।
शाहिदा परवीन कहती हैं कि ड्यूटी पर मौत की बात से उन्हें डर नहीं लगता है। कारण है कि वह हर पल मरने के लिए तैयार हैं। शाहिदा कहती हैं, ‘मैं अपनी एके-47 के साथ पिस्टल रखा करती थी। मेरे दिमाग में था कि अगर किसी दिन मुझे अकेले पकड़ लिया गया तो मैं पिस्टल से अपनी जान ले लूंगी।’ जब वह जीप से घर लौटती थीं तो ड्राइवर से कहा करती थीं – गाने चलाओ। क्या पता वापस आएं न आएं।
शाहिदा परवीन की भर्ती सब इंस्पेक्टर के तौर पर हुई थी। उन्होंने 1995 में सर्विस ज्वाइन की थी। SOG में वह पहली महिला कमांडो थीं। सिर्फ चार साल की उम्र में उनके पिता चल बसे थे। वह छह भाई-बहनों में सबसे छोटी थीं। हालांकि, मां ने भाइयों के साथ उन्हें भी पढ़ाया। जम्मू में उन्होंने एक प्राइवेट स्कूट में टीचिंग जॉब भी की। लेकिन, इसमें उनका बहुत मन नहीं लग रहा था। इसी के बाद वह पुलिस में भर्ती हुईं। उन्होंने कई कामयाब ऑपरेशंस किए। इसके चलते आउट ऑफ टर्म प्रमोशन मिले। शाहिदा को राष्ट्रपति पुलिस पदक भी मिला।