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नई दिल्ली. वैशाख मास की एकादशी तिथि को मोहिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। आज के दिन भगवान विष्णु के मोहिनी अवतार की विधि-विधान से पूजा-अर्चना की जाती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, समुद्र मंथन के दौरान अमृत का एक कलश निकला था जिसे दानवों से बचाने के लिए श्री हरि विष्णु ने मोहिनी का अवतार रखा था। इसलिए इस दिन व्रत करने के साथ कथा का पाठ करने या फिर सुनने से एक हजार गायों को दान देने के बराबर पुण्य की प्राप्ति होती है। इसके साथ ही भगवान विष्णु हर संकट से छुटकारा दिलाते हैं। आइए जानते हैं मोहिनी एकादशी व्रत की कथा।
मोहिनी एकादशी व्रत कथा
एक बार युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण से मोहिनी एकादशी की महत्व के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की, तो उन्होंने एक पौराणिक कथा के माध्यम से मोहिनी एकादशी के महत्व की व्याख्या की।
पौराणिक कथा के अनुसार, सरस्वती नदी के तट पर भद्रावती नगर था। वहां द्युतिमान नामक चंद्रवंशी राजा का राज था। इस नगर में हर तरह से संपन्न विष्णु भक्त धनपाल नामक वैश्य भी रहता था। वैश्य ने नगर में कई भोजनालय, प्याऊ, कुए, तालाब और धर्मशाला बनवाए थे। साथ ही नगर की सड़कों पर आम, जामुन, नीम के अनेक छायादार पेड़ भी लगाए थे। वैश्य के 5 पुत्र थे, जिनका नाम सुमन, सद्बुद्धि, मेधावी, सुकृति और धृष्ट बुद्धि था।
उसका पांचवा पुत्र खराब आदतों वाला था। वो माता-पिता और भाइयों किसी की भी बातें नहीं मानता था। वह बुरी संगति में रहकर जुआ खेलता और पराई स्त्री के साथ भोग-विलास करता और मांस-मदिरा का भी सेवन करता था। इसी प्रकार अनेक बुरे कामों से वो पिता के धन को नष्ट करता था।
पुत्र के कुकर्मों से परेशान होकर धनपाल ने धृष्ट बुद्धि को घर से निकाल दिया। अब वह अपने गहने-कपड़े बेचकर जीवन यापन करने लगा। जब उसके पास कुछ भी नहीं रहा, तो बुरे कामों में साथ देने वाले दोस्तों ने भी उसे छोड़ दिया। भूख-प्यास से परेशान धनपाल के पुत्र ने चोरी का रास्ता अपनाया, लेकिन वो चोरी करते हुए पकड़ा गया। उसे राजा के सामने हाजिर किया गया, लेकिन वैश्य का पुत्र जानकर राजा ने उसे चेतावनी देकर जाने दिया।
धृष्ट बुद्धि के सामने चोरी के अलावा और कोई रास्ता नहीं था, तो उसने फिर चोरी की और इस बार भी वो पकड़ा गया। दूसरी बार फिर पकड़े जाने पर राजा ने उसे कारागार में डाल दिया, जहां उसे बहुत दुख दिए गए और बाद में उसे नगर से निकाल दिया गया।
नगर से निकाले जाने पर धृष्ट बुद्धि वन में चला गया। वहां वो पशु-पक्षियों का शिकार करके उन्हें खाने लगा और कुछ समय के बाद वो बहेलिया बन गया। एक दिन वो भूख और प्यास से व्याकुल खाने की तलाश में कौडिन्य ऋषि के आश्रम पहुंच गया। उस समय वैशाख मास था और महर्षि गंगा स्नान कर वापस आ रहे थे। महर्षि के भीगे वस्त्रों के छींटे उस पर पड़ने से उसे कुछ ज्ञान की प्राप्ति हुई।
तब उसने कौडिन्य ऋषि से हाथ जोड़कर कहा, हे महर्षि! मैंने जीवन में बहुत पाप किए हैं, आप इन सभी पापों से मुक्ति का कोई उपाय बताएं। ऋषि ने प्रसन्न होकर उसे मोहिनी एकादशी का व्रत करने को कहा। इससे सभी पाप नष्ट हो जाएंगे। तब उसने विधि अनुसार व्रत किया।
महर्षि वशिष्ठ श्री राम से बोले, हे राम! इस व्रत के प्रभाव से उसके सब पाप मिट गए और अंत में वो गरुड़ पर सवार होकर बैकुंठ चला गया। इस व्रत से मोह-माया सबका नाश हो जाता है। संसार में इस व्रत से और कोई श्रेष्ठ व्रत नहीं है। इस व्रत की महिमा को पढ़ने या सुनने मात्र से ही एक हजार गो दान का फल प्राप्त होता है।