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मेरठ। जयंत चौधरी के पाला बदलकर NDA में जाने से वेस्ट यूपी में सपा के लिए समीकरण मुश्किल होंगे। खासकर जाट बहुल सीटों पर पार्टी को नए सिरे से मशक्कत करनी पड़ेगी। 2022 के विधानसभा चुनाव में दोनों दलों को साथ रहने का फायदा मिला था। हालांकि, सपा के राष्ट्रीय सचिव राजेंद्र चौधरी कहते हैं कि अखिलेश यादव चौधरी चरण सिंह की ही नीतियों को आगे बढ़ा रहे हैं। जनता समझदार है किसी के जाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
2018 के कैराना लोकसभा सीट के उपचुनाव में सपा-रालोद साथ आए और जीत मिली। 2019 के लोकसभा चुनाव में भी अखिलेश ने सपा के कोटे से 2 सीटें रालोद को दी थीं, लेकिन खाता नहीं खुला। 2022 के विधानसभा चुनाव में भी दोनों दल साथ थे। मेरठ, मुरादाबाद और सहारनपुर मंडल में खास तौर पर जाट-मुस्लिम समीकरण ने असर दिखाया और विपक्ष की सीटें बढ़ीं। 2017 में भाजपा ने इन मंडलों की 71 में 51 सीटें जीती थीं। 2022 में यह आंकड़ा घटकर 40 हो गया और विपक्ष की सीटें बढ़कर 20 से 31 हो गईं।
प्रभावित हो सकता है जाट-मुस्लिम समीकरण
जानकारों का कहना है कि वेस्ट यूपी की लगभग 18 सीटें ऐसी हैं, जिन पर जाट वोटर असर डालते हैं। इसमें कैराना, मुरादाबाद, अमरोहा, अलीगढ़, मुजफ्फरनगर, मेरठ, सहारनपुर, बिजनौर, संभल, नगीना आदि सीटों पर मुस्लिम वोटरों की भी प्रभावी तादात है। यहां जाट-मुस्लिम गठजोड़ संभावनाओं को मजबूत बनाता है। रालोद के साथ सपा इस समीकरण को मुफीद मान रही थी। हालांकि, पिछले एक दशक में भाजपा ने जाट वोटरों के बीच अपनी पैठ काफी मजबूत की है। रालोद के जाने के बाद सपा के लिए जाट वोट बैंक में हिस्सेदारी मुश्किल हो सकती है। पार्टी के पास इस समय वेस्ट यूपी में कोई मुखर जाट चेहरा नहीं है।