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पटना: लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस बिहार में अपने सियासी समीकरण को दुरुस्त करने में जुट गई है. कांग्रेस की नजर बिहार के मुस्लिम बहुल सीमांचल इलाके पर है, जहां असदुद्दीन ओवैसी के बढ़ते सियासी फैक्टर को बेअसर करने के लिए पार्टी ने मुस्लिम दांव चला है. विधायक शकील अहमद खान को अजीत शर्मा की जगह बिहार कांग्रेस विधायक दल का नेता चुना गया है. बिहार में 23 साल के बाद किसी मुस्लिम नेता को कांग्रेस ने सीएलपी नेता बनाया है.
कर्नाटक चुनाव में मुस्लिम वोटबैंक की वापसी के बाद कांग्रेस के हौसले बुलंद हो गए हैं और अब देश के अलग-अलग सूबों में अपने खोए हुए मुस्लिम वोटबैंक को दोबारा से जोड़ने की कवायद में है. इसी कड़ी में कांग्रेस ने अजीत शर्मा को विधायक दल की सीट से हटाकर कटियार के कदवा सीट से दूसरी बार विधायक शकील अहमद खान को जगह दी है. बिहार कांग्रेस अध्यक्ष पद की कमान अखिलेश प्रसाद सिंह के हाथों में है, जो भूमिहार समुदाय से आते हैं. विधायक अजीत शर्मा भी भूमिहार जाति से आते हैं. इसीलिए कांग्रेस ने शकील अहमद खान को सीएलपी लीडर बनाकर बिहार का सियासी बैलेंस बनाने की कवायद की है. 2000 में आखिरी बार कांग्रेस से फुरकान अंसारी सीएलपी नेता नियुक्त किए गए थे और 23 साल के बाद शकील अहमद को चुना गया है. इसे बिहार के सीमांचल क्षेत्र में कांग्रेस की मुस्लिम पॉलिटिक्स के लिए काफी अहम माना जा रहा है.
सीमांचल में ओवैसी का प्रभाव
शकील अहमद खान सीमांचल इलाके से आते हैं, जो कांग्रेस का एक समय मजबूत गढ़ माना जाता था. सीमांचल क्षेत्र में कटिहार, पूर्णिया, अररिया और किशनगंज लोकसभा सीट आती हैं. कांग्रेस के पास बिहार में सिर्फ किशनगंज लोकसभा सीट है, लेकिन असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलामीन धीरे-धीरे सीमांचल में अपनी सियासी जड़े जमाती जा रही है. 2020 के बिहार चुनाव में ओवैसी की पार्टी से पांच विधायक जीतने में कामयाब रहे थे. ये सभी पांचों विधायक सीमांचल से जीते थे. हालांकि, इनमें चार विधायकों ने आरजेडी का दामन थाम लिया है, लेकिन इससे ओवैसी का असर कम नहीं हुआ है.
बिहार की सियासत में असदुद्दीन ओवैसी के राजनीतिक फैक्टर को बेअसर करने के लिए कांग्रेस को सीमांचल क्षेत्र में एक मजबूत चेहरे की तलाश थी. किशनगंज में कांग्रेस की अच्छी पकड़ है और शकील अहमद खान के जरिए पार्टी सीमांचल के पूरे इलाके में अपनी जड़ें दोबारा से जमाना चाहती है. सीमांचल की राजनीति में इतना कुछ दांव पर होने के कारण कांग्रेस ने शकील अहमद खान जैसे नेता को आगे बढ़कर मुस्लिमों का भरोसा जीतने का दांव चला है, ताकि ओबीसी के बढ़ते हुए सियासी प्रभाव को तोड़ा जा सके.
सीमांचल की पॉलिटिक्स
बिहार के सीमांचल में 40 से 70 फीसदी तक मुस्लिम आबादी है. इसीलिए ओवैसी ने बिहार में इसी सीमांचल के इलाके को अपनी सियासी प्रयोगशाला बनाया तो कांग्रेस, आरजेडी को तगड़ा झटका लगा. कांग्रेस बिहार में 2024 के लोकसभा और 2025 के विधानसभा चुनाव के मद्देनजर अभी से अपनी जमीन तैयार करने में जुट गई है. 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी इस क्षेत्र की 4 लोकसभा सीटों में से एक किशनगंज ही जीत सकी थी. जेडीयू ने कटिहार और पूर्णिया सीट जीती थी, जबकि अररिया सीट बीजेपी को मिली थी. सीमांचल इलाके की 24 विधानसभा सीटों से 16 पर महागठबंधन का कब्जा है. कांग्रेस के पांच आरजेडी के पास सात सीटें हैं तो जेडीयू के पास चार सीटें हैं. आरजेडी की सात सीटों में ओवैसी के चार विधायक भी शामिल हैं.
मुस्लिम वोटों के सहारे असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM ने भी सीमांचल में 5 सीटें जीतकर बिहार में दमदारी के साथ एंट्री की थी, लेकिन उसके 4 विधायक आरजेडी के साथ चले गए. असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी दोबारा से सीमांचल में सक्रिय है तो कांग्रेस की नजर भी इसी इलाके पर है. 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान किशनगंज सीट पर ओवैसी की पार्टी को करीब 3 लाख मत मिले थे, जो 26.78 प्रतिशत था. कांग्रेस सीमांचल के जरिए बिहार में अपनी वापसी की उम्मीद लगा रखी है, जिसके चलते शकील अहमद खान को सीएलपी नेता बनाया गया है.
शकील अहमद का सियासी सफर
शकील अहमद खान का जन्म सीमांचल के कटिहार के काबर कोठी गांव में हुआ था. शकील अहमद खान की शुरुआती शिक्षा गांव में हुई, जिसके बाद उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से स्नातक किया. इसके बाद उन्होंने दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) से एमए, एमफिल और पीएचडी किया. जेएनयू में पढ़ते हुए सियासत में कदम रखा और सीपीआई (एम) से स्टूडेंट्स विंग एसएफआई से जुड़ गए. 1992 में जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष के रूप में चुने गए. 1999 में कांग्रेस में शामिल हुए और राष्ट्रीय सचिव रहे. साल 2015 में शकील अहमद खान पहली बार कटियार के कदवा विधानसभा सीट से विधायक चुने गए. इसके बाद 2020 में भी इसी सीट पर कांग्रेस से विधायक बने. बिहार की सियासत में शकील अहमद खान अपनी मजबूत पकड़ बनाने में सफल रहे, जिसके चलते पार्टी ने उन्हें विधायक दल का नेता बनाकर 2024 के लोकसभा चुनाव में सीमांचल के सियासी समीकरण को साधने और मुस्लिमों के विश्वास को जीतने का दांव चला है.
शकील अहमद और चौधरी महबूब अली कैसर बिहार कांग्रेस प्रमुख के रूप में कार्य कर चुके हैं. अल्पसंख्यक समुदाय के बहुत कम नेता अब तक सीएलपी नेता रहे हैं. फुरकान अंसारी से पहले सीएलपी पद पर काम करने वाले समुदाय के अब्दुल गफूर थे बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. कांग्रेस ने शकील अहमद को अब आगे बढ़ाकर मुस्लिमों को सियासी संदेश देने की कवायद की है. देखना है कि शकील अहमद सीमांचल के ओवैसी के सियासी प्रभाव को कितना प्रभावित करते हैं?