उत्तराखंड में मुसलमानों की सियासत और क्या है इसका हरिद्वार कनेक्शन?

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देहरादून। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भले ही हिंदू-मुसलमान का शोर चारों ओर सुनाई दे रहा हो लेकिन पड़ोसी राज्य उत्तराखंड में हालात जुदा हैं. चुनाव यहां भी हैं, लेकिन चर्चा के केंद्र में मुसलमान नहीं हैं. अब सवाल ये है कि क्या मुसलमान वोटरों का यहां आधार उतना मजबूत नहीं है या फिर यहां यूपी जैसे सामाजिक हालात नहीं हैं. आखिर इस राज्य की सियासत में मुस्लिम कहां खड़ा है?

उत्तराखंड एक छोटा प्रदेश है जिसका अधिकतर हिस्सा पहाड़ी है. 13 ज़िले वाले इस राज्य में एक करोड़ की आबादी है. विधानसभा की 70 और लोकसभा की पांच सीटें हैं. Uttarakhand में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या करीब 13 फीसदी है. हरिद्वार, देहरादून, ऊधमसिंहनगर और नैनीताल में मुस्लिम वोटर निर्णायक स्थिति में नजर आता है. लेकिन बात जब मुस्लिम नेताओं को टिकट और उनके विधायक बनने की आती है तो ये संख्या बेहद कम दिखाई पड़ती है.

2017 के चुनाव में प्रदेश से दो मुस्लिम विधायक (Muslim MLA) निर्वाचित हुए थे, जो कांग्रेस पार्टी के टिकट पर जीते थे. कांग्रेस ने मुस्लिमों को कुल तीन टिकट दिए थे, जिनमें से लक्सर सीट पर हाजी तसलीम हार गए थे, जबकि मंगलौर से काज़ी मोहम्मद निज़ामुद्दीन (Qazi Nizamuddin Congress MLA) और पिरान कलियर से फुरकान अहमद (Furqan Ahmad Congress MLA) जीत गए थे. ये तीनों ही सीटें हरिद्वार जिले में आती हैं.

साल 2000 में उत्तराखंड देश के 27वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आया. उसके बाद से यहां चार बार विधानसभा के आम चुनाव हुए. इन सभी चुनावों में मुख्य लड़ाई कांग्रेस और भाजपा के बीच रही और बारी-बारी से दोनों पार्टियों की सरकार बनती रही. भाजपा ने कभी कोई टिकट नहीं दिया और कांग्रेस बस एक-दो सीटों पर ही मुस्लिम प्रत्याशी उतारती रही.

कितने मुस्लिम प्रत्याशी?
2022 के विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस ने अब तक 63 उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी है, जबकि भाजपा ने 61 प्रत्याशी घोषित किए हैं. भाजपा की लिस्ट में हमेशा की तरह इस बार भी कोई मुस्लिम उम्मीदवार नहीं है, जबकि कांग्रेस की लिस्ट में दो नाम हैं. बहुजन समाज पार्टी ने अपने 37 प्रत्याशियों की लिस्ट में तीन मुस्लिम नाम हैं. इस बार आम आदमी पार्टी भी मैदान में है और उसने भी दो मुस्लिम प्रत्याशी उतारे हैं.

मुस्लिम समुदाय के बीच विधायक काज़ी निज़ामुद्दीन
Congress ने हरिद्वार जिले की मंगलौर सीट से सिटिंग विधायक काज़ी निज़ामुद्दीन को प्रत्याशी बनाया है, जबकि इसी जिले की पिरान कलियर सीट से सिटिंग विधायक फुरकान अहमद को टिकट दिया है. यानी कांग्रेस ने हरिद्वार जिले में ही मुसलमानों को प्रतिनिधित्व का मौका दिया है. हालांकि, हाजी तसलीम भी फिर से टिकट की मांग कर रहे हैं लेकिन उन्हें सूची में जगह नहीं मिल पाई है.

बहुजन समाज पार्टी ने मंगलौर से सरवत करीम अंसारी, लक्सर से मोहम्मद शहजाद को टिकट दिया है. ये दोनों सीटें हरिद्वार में ही हैं. बसपा ने एक टिकट श्रीनगर सीट (उमेर अंसारी) से भी दिया है.

आम आदमी पार्टी के भी दो प्रत्याशियों में एक हरिद्वार जिले की पिरान कलियर सीट पर है, यहां से शादाब आलम को उतारा गया है. जबकि दूसरा टिकट ऊधमसिंहनगर जिले की जसपुर सीट से यूनुस चौधरी को दिया गया है.

हरिद्वार क्यों है खास?
यूं तो हरिद्वार(Haridwar) हिंदू धर्मनगरी के तौर पर पूरी दुनिया में अपनी पहचान रखता है, लेकिन यहां की डेमोग्राफी देखी जाए तो मुस्लिमों की तादाद करीब 35 फीसदी है. जिले में 11 विधानसभा सीटें हैं-हरिद्वार, भेल रानीपुर, ज्वालापुर-SC, भगवानपुर-SC, झबरेड़ा-SC, पिरान कलियर, रुड़की, खानपुर, मंगलौर, लक्सर और हरिद्वार ग्रामीण.

मंगलौर, पिरान कलियर, हरिद्वार ग्रामीण, लक्सर और रुड़की ऐसी सीटें हैं जहां मुस्लिम वोटर निर्णायक स्थिति में हैं. इन सीटों से मुस्लिम प्रत्याशी लड़ते रहे हैं और जीतते भी रहे हैं. 2002 में जब राज्य का पहला आम विधानसभा चुनाव हुआ तो उसमें तीन मुस्लिम विधायक जीतकर आए. मंगलौर सीट से काज़ी निज़ामुद्दीन, बहादराबाद सीट से शहज़ाद और लालढांग सीट से तसलीम अहमद विधायक बने. ये तीनों ही विधायक बसपा के टिकट पर जीते थे. इस चुनाव के बाद एनडी तिवारी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी थी.

बसपा के टिकट पर जीतते रहे मुस्लिम विधायक
2007 के चुनाव में सत्ता परिवर्तन हो गया और बीजेपी की सरकार आ गई. लेकिन हरिद्वार जिले की इन सीटों के नतीजे ज्यों के त्यों ही रहे. 2002 की तरह ही एक बार फिर वही तीनों नेता बसपा के टिकट पर जीतकर आए. इस बार भी राज्य में यही सिर्फ तीन मुस्लिम विधायक जीते.

2012 के चुनाव से पहले हालात थोड़े बदल गए. बहादराबाद और लालढांग सीट का परिसीमन में विलय हो गया. हरिद्वार ग्रामीण और पिरान कलियर नाम से भी नई सीट अस्तित्व में आ गई. राज्य की सत्ता इस बार भी बदली और कांग्रेस ने फिर से वापसी कर ली. लेकिन इस चुनाव में मुस्लिम विधायकों की संख्या 3 से घटकर दो रह गई. काज़ी निज़ामुद्दीन बसपा छोड़ कांग्रेस में चले गए और बसपा के टिकट पर मंगलौर सीट पर उनके सामने सरवत करीम अंसारी ने चुनाव लड़ा. सरवत करीम ने काज़ी निज़ामुद्दीन को हरा दिया. दूसरी तरफ, कांग्रेस के खेमे में एक नए मुस्लिम नेता का जन्म हो गया और पिरान कलियर सीट से फुरकान अहमद ने जीत दर्ज की.

बीजेपी की लहर में कांग्रेस बिखर गई तब भी 2017 के चुनाव में फुरकान अहमद ने दूसरी बार पिरान कलियर से चुनाव जीता. दूसरी तरफ, काज़ी निज़ामुद्दीन ने मंगलौर सीट अपने खाते में वापस कर ली.

इस तरह उत्तराखंड की मुस्लिम पॉलिटिक्स पूरी तरह हरिद्वार में ही केंद्रित रही. अब सवाल ये है कि क्या हरिद्वार(Haridwar) के अलावा अन्य जिलों में मुस्लिम नेता क्यों नहीं खड़े हो पाए.

हरिद्वार के तीन और जिले ऐसे हैं जहां मुस्लिमों की मौजूदगी का प्रभाव है. ऊधमसिंहनगर जिले में करीब 23 फीसदी, नैनीताल में 13 और देहरादून में करीब 12 फीसदी मुस्लिम आबादी है. इनके अलावा अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चमोली, पौड़ी गढ़वाल, चम्पावत समेत सभी अन्य जिलों में मुस्लिम आबादी एक से तीन प्रतिशत के बीच ही है.

बता दें कि ऊधमसिंहनगर और नैनीताल कुमाऊं मण्डल के जिले हैं. ऊधमसिंहनगर में 23 प्रतिशत मुस्लिम होने के साथ ही करीब 10 फीसदी सिख भी है, बावजूद इसके यहां से कभी कोई मुस्लिम विधायक नहीं बन सका है. कांग्रेस ने 2012 में यहां की किच्छा सीट से मुस्लिम प्रत्याशी उतारा था लेकिन वो जीत नहीं सका था. इस बार आम आदमी पार्टी ने यहां की जसपुर सीट से मुस्लिम प्रत्याशी दिया है.

देहरादून राजधानी है और यहां करीब ढाई लाख मुस्लिम वोटर है लेकिन कांग्रेस ने कभी कोई मुस्लिम प्रत्याशी जिले की किसी सीट से नहीं उतारा है.

हरिद्वार से बाहर क्यों नहीं उठी सियासत?
लेखक और वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण कुमार भट्ट का कहना है कि उत्तराखंड एक पहाड़ी राज्य है और यहां के हालात बाकी राज्यों से बिल्कुल अलग हैं. ये आंदोलन का राज्य है, मुस्लिम राजनैतिक रूप से जागरूक नहीं हैं. कैंपेनर की बजाय वो सिर्फ वोटर बन गए हैं. प्रवीण भट्ट का कहना है कि पहाड़ और मैदान का मुस्लिम भी अलग है, दोनों का स्वभाव अलग है, पहाड़ में जो मुस्लिम हैं वो वर्षों से वहीं रहते हैं जैसे बाकी पहाड़ी रहते हैं, उनका रहन-सहन भी अन्य पहाड़ियों जैसा ही है और क्योंकि वो छोटे-छोटे गांव या पॉकेट में बसे हैं लिहाजा उनकी राजनीतिक सक्रियता भी नहीं बढ़ पाई है.

हालांकि, अब इसकी कोशिश की जा रही है. कुछ मुस्लिम युवाओं ने मुस्लिम सेवा संगठन बनाया है और करीब पांच साल से ये संगठन काम कर रहा है. संगठन के लोग अब चुनावी राजनीति में भी उतर रहे हैं. हाल ही में जब हरिद्वार धर्म संसद में मुसलमानों के खिलाफ आवाज़ उठी तो इस संगठन ने हरिद्वार से देहरादून तक प्रदर्शन किया. अब संगठन ने देहरादून जिले की 6 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है.

इस संगठन के अध्यक्ष नईम अहमद ने कहा, ‘जो मौजूद नेता हैं वो मुसलमानों के मुद्दे नहीं उठाते हैं. वो मुसलमानों की हिस्सेदारी का सवाल नहीं करते हैं. वो सिर्फ अपनी राजनीति करते हैं. इसलिए कांग्रेस जैसी पार्टी सिर्फ मुसलमानों का वोट लेती है, उन्हें टिकट देने से कतराती है. जबकि बीजेपी के एजेंडे में मुसलमान है ही नहीं.’

इस मसले पर मसूरी विधानसभा के यूथ कांग्रेस अध्यक्ष वसीम खान का कहना है कि कांग्रेस सबको साथ लेकर चलने वाली पार्टी है. हरीश रावत और प्रीतम सिंह समेत हमारी लीडरशिप सबको समान अवसर देने में विश्वास रखते हैं. पार्टी ने अल्पसंख्यकों को हिस्सेदारी भी दी है. धीरे-धीरे लोग जुड़ रहे हैं. वसीम खान का कहना है कि हम NSUI की पॉलिटिक्स करते हुए कॉलेज से लेकर अब तक पार्टी के लिए काम कर रहे हैं, ऐसे ही युवाओं को आगे आकर सक्रियता दिखानी चाहिए. पार्टी के लिए काम करते रहेंगे तो निश्चित ही पार्टी टिकट में हिस्सेदारी भी सुनिश्चित करेगी.

बहरहाल, हिस्सेदारी की ये तस्वीर कैसे और कितनी बदलेगी ये तो भविष्य ही बताएगा. इस बार उत्तराखंड में कितने मुस्लिम विधायक चुनकर आते हैं ये 10 मार्च को नतीजे के बाद साफ हो जाएगा. राज्य में 14 फरवरी को सभी 70 सीटों पर मतदान होना है.