गहलोत जो चाहते थे वही हुआ! कांग्रेस हाईकमान की बन गई चक्करगिन्नी

Whatever Gehlot wanted, happened! Chakkargini became of Congress high command
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नई दिल्ली: क्या अशोक गहलोत यही चाहते थे? यह सवाल इसलिए खड़ा हो गया है क्योंकि जब 48 घंटे तक गहलोत के वफादार जयपुर से सीधे पार्टी हाईकमान को चुनौती दे रहे थे तो हालात को काबू में करने के लिए सीएम कुछ खास करते नहीं दिखे। उनके ही कैबिनेट मंत्री ने दिल्ली से आए पर्यवेक्षकों पर खुलेआम गंभीर आरोप लगा दिए। साफ संदेश मिला कि गहलोत गुट अपनी शर्तों पर राज्य का अगला सीएम चाहता है। दरअसल, एक समय था जब मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़कर नेता कांग्रेस अध्यक्ष बनने के लिए दिल्ली चले आते थे लेकिन आज कांग्रेस की हालत किसी से छिपी नहीं है। राजस्थान में अगले साल चुनाव होने हैं और वहां भाजपा के बन रहे समीकरण के चलते गहलोत खुद को अच्छी स्थिति में देख रहे हैं। इधर, अगर वह दिल्ली आकर कांग्रेस अध्यक्ष बनते तो इस बात की पूरी अटकलें थी कि वह गांधी परिवार के प्रतिनिधि के रूप में काम करते या करना पड़ता। हो सकता था आगे चलकर ऐसे हालात बनते कि उन्हें गांधी परिवार के लिए कुर्सी भी छोड़नी पड़ जाती। गहलोत कांग्रेस चीफ की कुर्सी अपने लिए ‘आग का दरिया’ ही समझ रहे थे।

मोदी-शाह के आगे गहलोत का टेस्ट होता!
शायद यही वजह है कि जब वह राहुल गांधी से केरल में मिलकर लौटे तो उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी ज्यादा सुरक्षित नहीं लगी। वैसे भी, एक सीएम सरकार चलाता है और वह अपने लिए गिनाने के लिए अच्छे काम भी रखता है लेकिन कांग्रेस चीफ बनने के बाद गहलोत की टक्कर सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्माई चेहरे और रणनीतिकार अमित शाह से होती। हर चुनाव में उनका आकलन किया जाता। लंबे-लंबे लेख लिखे जाते, कुछ पुराने कुछ नए सहयोगी उनके काम करने के तरीकों को पसंद या नापसंद करते। शायद गहलोत को लगा कि इस हाल में ज्यादा सेफ खेलना ही ठीक होगा। सीएम की कुर्सी तो है ही और अगले चुनाव में भी उन्हें बने रहने की उम्मीद है।

कमलनाथ का भी वही प्लान है
इसे कमलनाथ के उदाहरण से भी समझ लीजिए। वह भी पार्टी के दिग्गज नेता हैं, दशकों से सियासत में है लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ने से बच रहे हैं। उन्होंने कहा है कि वह राज्य पर फोकस करेंगे। राज्य इसलिए क्योंकि वहां चुनाव करीब हैं। वहां उन्हें अपने लिए ज्यादा स्कोप दिख रहा है। ऐसे समय में उन कांग्रेस नेताओं को भी याद करना महत्वपूर्ण है जिन्होंने सीएम की कुर्सी छोड़ दी थी। 1968 में कर्नाटक के तत्‍कालीन सीएम एस निजलिंगप्पा ने अध्यक्ष बनने के लिए सीएम की कुर्सी छोड़ी थी। हालांकि, इस फैसले पर उन्‍होंने बाद में अफसोस जाहिर किया था। उनके अलावा के. कामराज और यूएन धेबर दो ऐसे नेता रहे जिन्होंने कांग्रेस चीफ बनने के लिए सीएम पद छोड़ दिया था। लेकिन आज का समय अलग है। तब नेहरू या कांग्रेस की लहर चला करती थी और आज मोदी की लहर है।

जादूगर का सब खेल था…
जब दो दिनों तक जयपुर में हाई वोल्टेज ड्रामा चलता रहा और गहलोत ने उसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया तभी यह साफ हो गया कि सारा खेल ‘जादूगर’ का है। मांगें उनके वफादार रख रहे थे लेकिन शब्दों से साफ था कि इसकी पटकथा गहलोत ने ही लिखी है। जैसे, 19 अक्टूबर के बाद राजस्थान के सीएम के ऐलान की शर्त। ऐसा कर गहलोत चाहते थे कि पार्टी हाईकमान के कहने पर वह अध्यक्ष का चुनाव तो लड़ें लेकिन यह सुनिश्चित कर लें कि 19 अक्टूबर के बाद की स्थिति क्या होगी। मतलब अगर वह नहीं जीतते तो राजस्थान के मुख्यमंत्री बने रहते और अगर वह जीत जाते हैं तो अपने वफादारों के जरिए एक लाइन का प्रस्ताव पारित करा लेते और राज्य में अपने किसी खास को सीएम पद पर बिठा सकेंगे। आमतौर पर कांग्रेस पार्टी में एक लाइन के प्रस्ताव की परंपरा रही है जिसमें कहा जाता है कि सीएम का फैसला राष्ट्रीय अध्यक्ष करेंगी।

गहलोत समझते हैं कि ऐक्शन नहीं होगा?
अब आज की परिस्थिति समझिए। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात करने के बाद राजस्थान के सीएम ने कहा कि उन्होंने जयपुर के घटनाक्रम के लिए माफी मांग ली है और अब वह अध्यक्ष पद का चुनाव नहीं लड़ेंगे। मतलब वह सीएम बने रहना चाहते थे और वह रहेंगे। चुनाव में ज्यादा वक्त नहीं है और हाल में गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल जैसे दिग्गजों के पार्टी छोड़ने के चलते वह यह जानते हैं कि इस माहौल में कांग्रेस हाईकमान उनकी कुर्सी छीनने की गलती नहीं करेगा। क्षेत्रीय क्षत्रप कभी भी अपनी अलग राह चुन सकते हैं। इसका मतलब साफ है कि गहलोत जो चाहते थे वही हुआ। वह चाहते थे कि सीएम वही रहें, सचिन पायलट को फिर से वेटिंग में ही रहना पड़ेगा और पार्टी हाईकमान को गहलोत के सामने झुकना पड़ा है।

50 साल की वफादारी बताई
यह जरूर है कि ‘10 जनपथ’ में मुलाकात के बाद गहलोत ने बड़ी चतुराई से यह कह दिया कि उनके मुख्यमंत्री पद पर बने रहने के बारे में फैसला सोनिया गांधी करेंगी। इसके जरिए उन्होंने विक्टिम कार्ड भी खेल दिया है। इसके साथ ही उन्होंने कांग्रेस के साथ अपने जुड़ाव का जिक्र करते हुए अपना पलड़ा भारी कर लिया। उन्होंने कहा, ‘मैं 50 वर्षों से कांग्रेस का वफादार सिपाही रहा हूं…जो घटना दो दिन पहले हुई उसने हम सबको हिलाकर रख दिया। मुझे जो दुख है वो मैं ही जान सकता हूं। पूरे देश में यह संदेश चला गया कि मैं मुख्यमंत्री बने रहना चाहता हूं इसलिए यह सब हो रहा है।’

गहलोत ने कहा, ‘दुर्भाग्य से ऐसी स्थिति बन गई कि प्रस्ताव पारित नहीं हो पाया। हमारी परंपरा है कि एक लाइन का प्रस्ताव पारित किया जाता है। मैं मुख्यमंत्री हूं और विधायक दल का नेता हूं, यह प्रस्ताव पारित नहीं हो पाया। इस बात का दुख मुझे हमेशा रहेगा। मैंने सोनिया जी से माफी मांगी है।’ उन्होंने आगे कहा, ‘मैंने तय किया है कि इस माहौल के अंदर अब चुनाव नहीं लड़ूंगा। यह मेरा फैसला है।’

पिछले रविवार की शाम जयपुर में विधायक दल की बैठक बुलाई गई थी, लेकिन गहलोत समर्थक विधायक इसमें शामिल नहीं हुए। पार्टी पर्यवेक्षकों मल्लिकार्जुन खड़गे और अजय माकन ने इसे ‘घोर अनुशासनहीनता’ करार दिया और गहलोत के करीबी तीन नेताओं के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की अनुशंसा की। इसके बाद पार्टी की अनुशासनात्मक कार्रवाई समिति की ओर से उन तीन नेताओं को ‘कारण बताओ नोटिस’ जारी कर दिए गए।

अब गहलोत के चुनावी रेस से बाहर होने के बाद पार्टी के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह नामांकन पत्र दाखिल करने वाले हैं। लोकसभा सदस्य शशि थरूर भी 30 सितंबर को दोपहर में अध्यक्ष पद के चुनाव के लिए नामांकन दाखिल करेंगे।