PFI की ठुकाई पर क्यों सडकों पर नहीं आया मुसलमान? वजह जान हो जायेंगे हैरान

Why didn't Muslims come on the streets because of PFI? You will be surprised to know the reason
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नई दिल्ली: पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) पर देशव्यापी छापेमारियां हुईं तो अलग-अलग मुस्लिम संगठन खुलकर समर्थन में उतर गए। कुछ संगठनों ने तो बाकयादा बयान जारी कर कहा कि पीएफआई देश में आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा था और सरकार की कार्वाइयां आतंकवाद को रोकने के लिए है। ऐसे कम ही मौके होते हैं जब किसी मुस्लिम संगठन पर ऐक्शन हो और मुसलमान अपनी तरफ से सक्रियता दिखाकर समर्थन में उतर जाएं। ऐक्शन तो दूर की बात, जांच-परख या सर्वेक्षण तक का भरपूर विरोध होता है। यहां तक कि संविधान और कानून के नजरिए से भी कुछ सुधारों की चर्चा छिड़े तो मुसलमानों की तरफ से जोरदार विरोध शुरू हो जाता है। फिर पीएफआई का क्या मसला है कि मुसलमान खुश हैं। या कहें तो मुसलमानों का बड़ा वर्ग कम-से-कम नाराज नहीं ही है, इसका अनुभव तो जरूर हो रहा है। यह सवाल आपके जेहन में भी कौंध रहा होगा।

पीएफआई पर ऐक्शन के समर्थन का राज समझें
दरअसल, मुसलमानों के बीच भी कई स्तर पर विभाजन है। कई फिरके हैं, कई मस्लक हैं और इनसे इतर भारत में उनकी कई जातियां भी हैं। धार्मिक स्तर पर फिरके और मस्लक हैं तो जातीय और सामाजिक स्तर पर भी अशराफ और पसमांदा का अलगाव है। भारतीय समझ और संस्कृति के लिए काम करने वाली संस्था जयपुर डायलॉग्स के संजय दीक्षित ने अपने एक यूट्यूब वीडियो में इस पर विस्तार से बात की है। इस्लामी मामलों के जानकार दीक्षित बताते हैं कि पीएफआई और उसके समर्थक वर्ग जिस इस्लाम को मानते हैं, उसके भारत और भारतीय उप-महाद्वीप में बहुत कम अनुयायी हैं। वो कहते हैं कि भारत में सूफी बरेलवी और सुन्नी देवबंदी मुसलमानों का दबदबा है। वहीं, पीएफआई वाले अहले हदीस के अनुयायी हैं। दूसरी बात ये कि पीएफआई के नेता और समर्थक ज्यादातर संख्या में अशराफ यानी उच्च जातियों से हैं, इसलिए पसमांदा महाज जैसे संगठन खुलकर उनका विरोध करते हैं। दीक्षित ने कहा, ‘मैं हमेशा कहता रहा हूं कि पीएफआई पर कार्रवाई करें, दूसरे लोग साथ नहीं आएंगे। मैं ऐसा क्यूं कहता रहा हूं? जयपुर डायलॉग्स और मेरी व्यक्तिगत जो जानकारी इस्लामी संगठनों के बारे में है, उसके आधार पर कहता हूं।’

आतंकी संगठन भी करते हैं एक-दूसरे पर हमला
वो वैश्विक आतंकी संगठनों के बीच के झगड़ों का हवाला देकर समझाते हैं। वो कहत हैं, ‘यदि आप अफगानिस्तान में देखें तो अलकायदा और तालिबान में 36 का आंकड़ा क्यों है? आईएसआईएस के आतंकी तालिबान पर हमले क्यों कर रहे हैं?’ वो आगे बताते हैं, ‘सेंट्रल एशिया और भारतीय उप-महाद्वीप में हनफी इस्लाम हैं। अरब और उसके आसपास के इस्लाम के जो फिरके या मस्लक हैं, यानी हनबली और सफाई, वो हनफियों को पसंद नहीं करते हैं। इनमें खास तौर से मुकल्लिद और गैर-मुकल्लिद का बहुत बड़ा अंतर है।’

संजय दीक्षित मुकल्लिद का मतलब भी बताते हैं। उन्होंने कहा, ‘मुकल्लिद में कयास यानी तकलीद चलती है। इसके तहत उलेमा को यह अधिकार होता है कि वो कुरान और हदीसों से जुड़े मुद्दों की अपने हिसाब से व्याख्या करें। और वो जो भी व्याख्या करेंगे, उनके अनुयायियों पर वो फर्ज हो जाता है। यानी उलेमा ने कुरान और हदीसों की व्याख्या जिस रूप में भी की, उसके अनुयायी वही मानेंगे। लेकिन, अरब और आसपास के मुस्लिम मुमालिकों में जो इस्लाम चलता है, वहां उलेमाओं की व्याख्या को मानना फर्ज नहीं होता है। यानी उलेमा जो कहें, वही सही, यह अरब वर्ल्ड में अनिवार्य नहीं होता है। इसे वो गैर-मुकल्लिद मुसलमान हैं।’

बकौल संजय दीक्षित, भारत में भी गैर-मुकल्लिद की शाखा है जो बहुत छोटी है। इस भारतीय गैर-मुकल्लिद शाखा का नाम है- अहले हदीस। भारत में अहले हदीस का फिरका बहुत छोटा है। पीएफआई और भारत से भागे इस्लामी धर्मगुरु जाकिर नाइक इसी अहले हदीस को मानने वाले हैं। वो कहते हैं, ‘अभी दावा किया जा रहा है कि सरकार ने पहले ही मुसलमानों को साध लिया, इसलिए पीएफआई का कोई समर्थन नहीं कर रहा है बल्कि उनके खिलाफ हुई कार्वाइयों का खुलकर समर्थन कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि न देवबंदी और न बरेलवी, कोई इनका समर्थन नहीं कर रहा है। ये जान लीजिए कि दोनों मुकल्लिद हैं।’

वो आगे कहते हैं, ‘पीएफआई वाले अधिकतर अहले हदीस वाले यानी गैर-मुकल्लिद हैं। जाकिर नाइक भी यही था। जाकिर नाइक का सबसे बड़ा समर्थन पीएफआई में ही था। भारत से अलकायदा और आईएसआईएस में जाने वाले ज्यादातर पीएफआई के माध्यम से ही गए हैं।’ वो कहते हैं, ‘क्या आपने कभी सोचा कि अलकायदा और आईएसआईएस में शामिल होने के लिए ज्यादातर मुसलान केरल से ही क्यों गए जबकि वह राज्य सबसे ज्यादा शिक्षित है? यह तभी समझ पाएंगे जब आपको मुकल्लिद और गैर-मुकल्लिद का अंतर समझेंगे।’

संजय दीक्षित कहते हैं, ‘तकलीद वो होते हैं अपने उलेमाओं की नकल करते हैं और जो तकलीद नहीं होते वो उलेमाओं की नहीं सिर्फ रशीदुन खलीफाओं की करते हैं। रशीदी यानी जो शुरुआती चार खलीफा हैं। गैर-मुकल्लिद उन्हीं चार खलीफाओं- अबू बक्र, उमर, उथमन या उस्मान और अली, की नकल करते हैं। उनके यहां कयास नहीं चलता है। वो इसे कयासबाजी कहते हैं जो उलेमा करते हैं। जबकि पीएफआई वालों का पूरा का पूरा भरोसा उलेमाओं पर है। इसलिए देवबंदियों और बरेलवियों का पीएफआई वालों से बिल्कुल वैचारिक अलगाव है।’