बैकफुट नहीं आगे बढकर खेल रही मोदी सरकार! खटाखट हो रहे फैसले-विपक्ष हैरान

Modi government is playing forward and not on the back foot! Decisions are being taken quickly - opposition is surprised
Modi government is playing forward and not on the back foot! Decisions are being taken quickly - opposition is surprised
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नई दिल्ली: लोकसभा नतीजों के बाद से ही अब तक इस बात के कयास लगाए जा रहे हैं कि पीएम मोदी का अंदाज इस बार पिछले दो कार्यकाल जैसा नहीं दिखेगा। विपक्ष की ओर से लगातार कई दावे किए जा रहे हैं। लेकिन नई सरकार के गठन और संसद की शुरुआत तक इस बात के उलट अब तक यही संकेत मिल रहे हैं कि मोदी सरकार बैकफुट पर नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी की ओर से जिस प्रकार फैसले लिए गए हैं वह इस बात की ओर इशारा है कि वह फिलहाल किसी दबाव में नहीं हैं। कौन मंत्री बनेगा, सहयोगी क्या डिमांड करेंगे, इन सवालों पर विराम लगा तो स्पीकर पद को लेकर चर्चा शुरू हो गई। संसद सत्र की शुरुआत से पहले ही कई सवाल खड़े हो रहे थे लेकिन पिछले चार दिनों में सदन के भीतर जो फैसले हुए और जो नजारा दिखा उससे यह बात क्लियर है कि मोदी सरकार बैकफुट पर नहीं है।

प्रोटेम स्पीकर और फिर स्पीकर को लेकर आक्रामक अंदाज
18 वीं लोकसभा के पहले सत्र की शुरुआत जब 24 जून को हुई तब कई सवाल थे। विपक्ष की ओर से कई सवाल किए जा रहे थे खासकर प्रोटेम स्पीकर को लेकर। प्रोटेम स्पीकर पर विपक्ष के सवाल के बीच सरकार अपने फैसले पर अडिग रही। विपक्ष दबाव बनाने के लिए प्रोटेम स्पीकर के सहयोग के लिए जिन सांसदों का नाम था उसे वापस ले लिया। प्रोटेम स्पीकर के बाद यह सवाल था कि क्या स्पीकर पद को लेकर कोई आम सहमति बनेगी। विपक्ष के तेवर देख इसकी उम्मीद कम थी। चर्चा यह चल रही थी कि इस बार बीजेपी के पास बहुमत नहीं है तो स्पीकर का पद एनडीए के साथी दलों के पास जा सकता है। कुछ राजनीतिक विश्लेषकों की ओर से यह भी तर्क दिया गया कि जैसा वाजपेयी सरकार में हुआ इस बार वैसा हो सकता है। विपक्ष की ओर से यह कहा गया कि नीतीश और चंद्रबाबू नायडू की पार्टी यदि स्पीकर पद नहीं लेती तो बीजेपी उनके सांसदों को तोड़ सकती है। इन चर्चाओं के बीच ओम बिरला के नाम के साथ बीजेपी आगे बढ़ती है। विपक्ष की ओर से उम्मीदवार खड़ा किया जाता है लेकिन वोटिंग की मांग नहीं की गई। जिसका नतीजा हुआ कि ओम बिरला दूसरी बार स्पीकर चुन लिए जाते हैं।

सदन के भीतर आपातकाल का हुआ जिक्र
लोकसभा अध्यक्ष अध्यक्ष चुने जाने के थोड़ी देर बाद ही बुधवार विपक्ष उस वक्त हैरत में पड़ गया जब ओम बिरला ने 1975 में कांग्रेस सरकार द्वारा लगाए गए आपातकाल की निंदा करते हुए एक प्रस्ताव पढ़ा। इस प्रस्ताव में उन्होंने कहा कि वह कालखंड काले अध्याय के रूप में दर्ज है जब देश में तानाशाही थोप दी गई थी, लोकतांत्रिक मूल्यों को कुचला गया था और अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंट दिया गया। आपातकाल पर प्रस्ताव पढ़ते हुए बिरला ने कहा कि अब हम सभी आपातकाल के दौरान कांग्रेस की तानाशाही सरकार के हाथों अपनी जान गंवाने वाले नागरिकों की स्मृति में मौन रखते हैं। इसके बाद सदस्यों ने कुछ देर मौन रखा। विपक्षी दल खासकर कांग्रेस को इस फैसले पर हैरानी हो रही थी और विरोध भी उनकी ओर से जताया गया। अभी इस बात को कुछ घंटे ही बीते थे कि गुरुवार राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने देश में 1975 में लागू आपातकाल को संविधान पर सीधे हमले का सबसे बड़ा और काला अध्याय बताते हुए कहा कि ऐसे अनेक हमलों के बावजूद देश ने असंवैधानिक ताकतों पर विजय प्राप्त करके दिखाई। मुर्मू ने 18वीं लोकसभा में पहली बार दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में अपने अभिभाषण में यह बात कही। राष्ट्रपति ने अपने 55 मिनट के अभिभाषण में कहा कि देश में संविधान लागू होने के बाद भी संविधान पर अनेक बार हमले हुए।

पुराने मंत्रियों पर जताया भरोसा, कैबिनेट में भी दिखा वही अंदाज
इस बार के चुनाव में बीजेपी को अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं हुआ लेकिन एनडीए की सरकार बनी। सरकार के गठन से पहले ही यह नैरेटिव गढ़ने की कोशिश हुई कि एनडीए के साथी दल हिसाब बराबर करेंगे। कई ऐसी खबरें भी सामने आई कि इस बार अधिक मंत्री पदों की मांग सहयोगी दलों की ओर से की जा रही है। लेकिन 9 जून को जब पीएम मोदी ने नए मंत्रियों के साथ शपथ ग्रहण किया तो यह सिर्फ कयास ही निकला। एनडीए में शामिल बड़े दलों को भी एक कैबिनेट और एक राज्य मंत्री का ही पद मिला। इसके बाद दूसरी चर्चा मंत्रालयों को लेकर शुरू हो गई। यह कहा जाने लगा कि बीजेपी के सहयोगी दल उससे रेल और वित्त मंत्रालय जैसे पद मांग रहे। लेकिन यहां भी कुछ नहीं बदला। मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के अधिकांश मंत्री दोबारा उन्हीं मंत्रालयों को तीसरे कार्यकाल में भी संभालते हुए नजर आ रहे हैं। रक्षा, वित्त, गृह,विदेश, रेल मंत्रालयों में कोई फेरबदल नहीं हुआ। इतना ही नहीं मंत्रालयों के बंटवारे के बाद एनडीए में शामिल किसी दल की ओर से कोई सवाल नहीं उठाए गए। 9 जून से 27 जून के पूरे घटनाक्रम को देखा जाए तो एक बात यह समझ आती है कि प्रधानमंत्री मोदी किसी दबाव में नहीं हैं और तीसरे कार्यकाल में भी वह पहले की ही तरह फैसले ले रहे हैं।