नई दिल्ली। बिहार सरकार के एक फैसले से गोपालगंज के तत्कालीन डीएम जी. कृष्णनैया की हत्या के दोषी आनंद मोहन सहित 27 कैदियों की रिहाई होने जा रही है। इसके बाद से बिहार की राजनीति में बयानों का दौर जारी है। सत्तारूढ़ आरजेडी और जेडीयू ने पूर्व सांसद की रिहाई का स्वागत किया है। वहीं, मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा इस मामले पर हमलावर तो जरूर है लेकिन जातीय समीकरण को ध्यान में रखते हुए संभल कर बयान दे रही है। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने आरोप लगाया कि आनंद मोहन की रिहाई पर किसी को आपत्ति नहीं हैं, इस आड़ में बिहार सरकार ने जो काम किया है, उसे समाज कभी माफ नहीं करेगा। जिन लोगों को रिहा किया गया है, उसमें कैसे-कैसे लोग और कौन-कौन लोग हैं, यह सबको मालूम है। वहीं, राजपूत समुदाय से आने वाले छपरा से सांसद राजीव प्रतार रूडी ने खुशी जताई है।
रूडी ने तो यहां तक कहा है कि आनंद मोहन को रिहा करके बिहार सरकार ने उनके निर्दोष होने का प्रमाण दिया है। अब प्रायश्चित करते हुए नीतीश कुमार और लालू यादव को माफी भी मांगनी चाहिए। इसके अलावा उन्होंने एक और राजपूत नेता प्रभुनाथ सिंह की रिहाई की भी मांग कर दी है। आनंद मोहन की रिहाई पर बीजेपी के सधे हुए बयान के पीछे की रणनीति को समझने की कोशिश करते हैं।
बिहार का सियासी इतिहास तो इसी की गवाही दे रहा है कि यहां रजपूत वोटर का अधिकांश हिस्सा सदैव राष्ट्रीय जनता दल के साथ रहा है। हां, कुछ सीटों और उम्मीदवारों को ध्यान में रखते हुए इस जाति के लोग भाजपा को भी वोट देते हैं। इसके अलावा राजपूतों की आरजेडी के एमवाई समीकरण (मुस्लिम-यादव) के साथ इसलिए भी जुगलबंदी रही है, क्योंकि बीजेपी और कांग्रेस में पहले से ही ब्राह्मण और भूमिहारों ने अपनी पैठ बना ली थी। आरजेडी ने भी इस जाति के नेताओं को खास तवज्जो दिया है। रघुवंश प्रसाद सिंह और जगदानंद सिंह सरीखे नेता इसके उदाहरण रहे हैं।
बिहार में ऐसी कम ही सीटें हैं, जहां राजपूत और यादवों के बीच सीधी टक्कर हो। इसलिए भी उन्हें आरजेडी के साथ जाने में कभी कोई परहेज नहीं रहा है। हालांकि, राजपूतों ने हमेशा नीतीश कुमार से परहेज किया है। बिहार की इस ताजा सियासी घटनाक्रम को नीतीश कुमार और आरजेडी के द्वारा सवर्णों में पैठ बनाने की एक कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है। यह ऐसे मौके पर हो रहा है, जब बिहार में जातीय गणना भी जारी है, जिसका सवर्णों में व्यापक विरोध है।
आनंद मोहन की ताकत
आनंद मोहन को भले ही राजपूत समुदाय अपना नेता नहीं मानता हो, लेकिन उनके प्रति एक सहानुभूति जरूर है। वह 1990 में पहली बार महिषी सीट से जनता दल के टिकट पर विधायक चुने गए थे। इसी दौरान उन्हेंने मंडल कमीशन का विरोध भी किया था। इसके कारण राजपूतों में उनकी पैठ बनती गई। उनकी पत्नी ललवी आनंद ने 1994 के लोकसभा उपचुनाव में वैशाली से आरजेडी उम्मीदवार को हरा दिया था। इसके बाद आनंद मोहन 1996 और 1998 के लोकसभा चुनाव में शिवहर से सांसद बने। आनंद मोहन की ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने सत्येंद्र नारायण सिंह जैसे कद्दावर नेता की बहू को चुनाव में हरा दिया था।
आनंद मोहन की रिहाई का कितना लाभ?
आनंद मोहन वैसे तो पुराने दौर के नेता रह चुके हैं। उम्र में वह नीतीश कुमार से बड़े हैं। उनकी सियासी प्रासंगिकता को एक परीक्षण से गुजरना पड़ेगा। पुराने लोगों में भले ही उनी पैठ अभी भी हो, लेकिन नए दौर के नेता और खासकर युवा उनके बारे में क्या सोचते हैं यह कहना अभी जल्दबाजी होगी। बिहार की सियासत को नजदीक से जानने वाले सुशांत झा का मानना है कि लोकसभा चुनाव में योगी आदित्यानाथ जैसे राजपूत के उभरते हुए नेता के कारण बीजेपी को भले ही वोट मिल जाए, लेकिन विधानसभा में राजपूत अपना समर्थन आरजेडी को देंगे। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा है कि सीट और कैंडिडेट देखकर बीजेपी को भी कुछ वोट इस जाति के मिल सकते हैं।