यादव वोट बैंक पर भाजपा की नजर, समझें यूपी में यादव समाज की सियासी ताकत

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नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) 2017 की तरह 2022 में चुनावी नतीजे दोहराने की कवायद में जुट गई है. ऐसे में बीजेपी की नजर सपा के हार्डकोर यादव वोटबैंक पर है, जिसे अपने साथ लाने की कवायद में योगी आदित्यनाथ जुट गए हैं. सूबे में ओबीसी समाज में सबसे बड़ी आबादी यादवों की है, जो सत्ता बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखते हैं. सपा इसी वोटबैंक के दम पर फिर से सत्ता में वापसी की उम्मीद लगाए है तो बीजेपी उसमें सेंधमारी कर अपने सियासी वर्चस्व को बरकरार रखना चाहती है.

यूपी में पांच बार यादव सीएम बने

यूपी में यादव समाज की सियासी ताकत ऐसी है, जिसने ठाकुर और ब्राह्मणों के नेतृत्व को यूपी की सत्ता से सिर्फ बेदखल ही नहीं किया बल्कि मंडल आंदोलन के बाद मायावती को छोड़ दें तो सत्ता में लगातार बने भी रहे हैं. राम नरेश यादव से लेकर मुलायम सिंह और अखिलेश यादव तक तीन यादव पांच बार यूपी के मुख्यमंत्री बने. हालांकि, 2014 के बाद से यादव राजनीति को झटका भी लगा है और सत्ता के साथ-साथ राजनीति पर भी संकट खड़ा हुआ है. 2022 में अब इसी यादव वोटबैंक पर बीजेपी और सपा आमने-सामने हैं.

यूपी में यादव समाज की सियासी ताकत

सूब में करीब 8 फीसदी यादव समुदाय के वोटर्स हैं, जो ओबीसी समुदाय की जनसंख्या में 20 फीसदी हैं. यादव समाज में मंडल कमीशन के बाद ऐसी गोलबंदी है कि बीजेपी और बीएसपी से कहीं ज्यादा अपनी जाति की पार्टी सपा की तरफ रहा है. मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के चलते यादव सपा के मुख्य वोटर्स माने जाते रहे हैं, जिन्हें बीजेपी अपने साथ जोड़ने की मुहिम शुरू कर रही है.

2022 के विधानसभा चुनाव के सियासी समीकरण दुरुस्त करने में जुटी बीजेपी की नजर यादव वोटों पर है. बीजेपी ओबीसी मोर्चा के सामाजिक प्रतिनिधि सम्मेलन के तहत शुक्रवार को यादव समाज को एकजुट किया जा रहा है. लखनऊ के इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान में यादव समाज के कार्यक्रम में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से लेकर प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्रदेव सिंह और बीजेपी के यादव विधायक और नेता शामिल होंगे. इसे यादव वोटरों को साधने के नजरिए से देखा जा रहा है.

यादव सपा का कोर वोटबैंक है

दरअसल, यूपी की सियासत में यादव समाज सपा प्रमुख अखिलेश यादव के साथ जुड़ा हुआ है, जिसे मुलायम सिंह यादव ने सपा के पक्ष में एकजुट किया था. यादव वोटों के दम पर मुलायम सिंह यादव तीन बार मुख्यमंत्री बने तो अखिलेश यादव एक बार. वहीं, जनता पार्टी के दौर में राम नरेश यादव सीएम बने जो बाद में कांग्रेस के साथ जुड़ गए. यूपी में ज्यादातर यादव सपा से जुड़े हैं और पार्टी के कोर वोटर माने जाते हैं.

सपा के सत्ता में रहने से सूबे में यादव समाज राजनीतिक ही नहीं बल्कि आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिणिक रूप से भी मजबूत हुए हैं. सपा सरकार में यादवों की सियासी तूती बोलती है. इतना ही नहीं सपा पर सत्ता में रहते हुए यादव परस्त होने का आरोप भी विपक्ष लगाता रहा है. इसके चलते गैर-यादव ओबीसी जातियां सपा से छिटककर बीजेपी और दूसरे दलों के साथ गई हैं. ऐसे में अखिलेश यादव इस बार यादव परस्त राजनीति से बचते नजर आ रहे हैं.

यूपी में यादव बहुल जिले

उत्तर प्रदेश के इटावा, एटा, फ़र्रुखाबाद, मैनपुरी, फिरोजबाद, कन्नौज, बदायूं, आजमगढ़, फैजाबाद, बलिया, संतकबीर नगर, जौनपुर और कुशीनगर जिले को यादव बहुल माना जाता है. इन जिलों की करीब 50 विधानसभा सीटें हैं, जहां यादव वोटर अहम भूमिका में हैं.

बता दें कि 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी के गैर-यादव राजनीति ने यादवों को तकरीबन हाशिये पर धकेल देने में जबरदस्त भूमिका अदा की. इस बार केवल 18 यादव चुने गए, जिसमें से छह बीजेपी से चुनकर आए थे बाकी 12 सपा से जीते थे. 2019 के लोकसभा चुनाव में भी यादव सांसदों की संख्या घटी है जबकि सपा-बसपा मिलकर चुनाव लड़ी थी. सपा को अपने मजबूत यादव बहुल गढ़ बदायूं, फिरोजाबाद, कन्नौज, इटावा, एटा, संतकबीर नगर जैसे जिले में हार का मूंह देखना पड़ा.

यादवों पर बीजेपी ने बनाई पकड़

बीजेपी 2017 के बाद से ही यादव वोटों को साधने में जुटी है. जौनपुर सीट से जीते गिरीश यादव को सीएम योगी ने अपनी कैबिनेट में जगह दी तो इटावा के हरनाथ यादव को राज्यसभा सदस्य बनाया. सुभाष यदुवंश को पहले बीजेपी युवा मोर्चा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया और अब प्रदेश संगठन में जगह दे रखी है. अभी हाल में जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में बीजेपी के टिकट पर यादव समाज के तीन अध्यक्ष बनाने में सफल रही है.

राजनीतिक विश्वेषक मानते हैं कि सपा शुरू से ही जाति आधारित राजनीति करती रही है. अगर सपा यादव वोट खिसक गए तो सत्ता में वापसी मुश्किल हो सकती है. हालांकि, मुलायम सिंह एक ऐसे नेता थे, जिन्हें यादव वोटर अपने अभिभावक के तौर में देखते थे. वह योजनाएं बनाने और अन्य जगहों पर यादवों का ख्याल रखते थे. उसके बाद अगर किसी का नाम आता है तो वह है शिवपाल का. वह कार्यकर्ताओं में भी प्रिय रहे हैं.

मुलायम और शिवपाल अपने वोटरों की चिंता करते थे. ये दोनों जमीनी नेता माने जाते हैं. शिवपाल अपनी पार्टी बना चुके हैं और मुलायम सिंह सेहत के चलते सक्रिय नहीं हैं. ऐसे में सपा के कोर यादव वोटों को बीजेपी अपने साथ जोड़ने के मिशन पर लग गई है. ऐसे में देखना है कि बीजेपी सूबे में कितना यादव समाज को अपने साथ जोड़ने में सफल रहती है?