पंजाब की तरह उत्तराखंड में भी क्या कांग्रेस खेल सकती है ‘दलित कार्ड’? जानें- क्यों उठी ये चिंगारी

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देहरादून/नई दिल्ली
पंजाब में दलित मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद राजनीतिक गलियारों में जिस सवाल का जवाब सबसे ज्यादा तलाशा जा रहा है वह यह है कि क्या कांग्रेस पंजाब (Punjab Politics) की तरह उत्तराखंड में भी किसी दलित नेता को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर सकती है? यह वादा क्या करके चुनाव मैदान में जा सकती है कि सत्ता में आने पर वह दलित नेता को ही मुख्यमंत्री बनाएगी?

इस सवाल की अहमियत इसलिए ज्यादा है, क्योंकि यह कहीं बाहर से नहीं बल्कि कांग्रेस के अंदर से ही खड़ा हुआ है। यह सवाल उन हरीश रावत के जरिेये खड़ा हुआ है जिनको कांग्रेस के सत्ता में आने पर मुख्यमंत्री पद के लिए सबसे मजबूत दावेदार समझा जा रहा है। एक संयोग यह भी है कि पंजाब के प्रभारी होने के नाते दलित नेता चरणजीत सिंह चन्नी को वहां के मुख्यमंत्री चुनने के सियासी नफा-नुकसान के आकलन में उनकी बराबर भागीदारी भी रही है।

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रावत की सलाह में कितना दम?
उन्होंने कहा है कि वह उत्तराखंड में भी दलित मुख्यमंत्री देखना चाहते हैं। उनकी यह बात भी बहुत ही अर्थपूर्ण है कि ‘दलित वर्ग कितना हमारे साथ है, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने कितने वर्षों तक कांग्रेस को सहारा देकर केंद्र और राज्यों में सत्ता में पहुंचाने का काम किया। हम प्रतिदान देंगे।’

इस बयान से भी ज्यादा महत्वपूर्ण घटनाक्रम यह है कि कांग्रेस के अंदर रावत की सलाह पर विचार-विमर्श शुरू हो गया है। पार्टी की टॉप लीडरशिप को भी लगता है कि इस सलाह में कहीं न कहीं दम है।

पार्टी के एक वरिष्ठ नेता से जब हमने जानना चाहा कि क्या कांग्रेस ऐसा फैसला ले सकती है तो उनका जवाब था-‘हम अभी किसी अंतिम निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे हैं, पहुंचना इतना आसान भी नहीं है लेकिन क्रिकेट मैच में आजमाया हुआ नुस्खा है कि जब नियमित बॉलर विकेट नहीं ले पा रहे होते हैं तो चतुर कप्तान किसी अनियमित बॉलर को मौका दे देता है और विकेट ले लेता है। उसके बाद मैच का रुख बदल जाता है।’

उत्तराखंड में क्या हैं दलित समीकरण?
उत्तराखंड राज्य को सवर्ण प्रभुत्व वाले राज्य के रूप में देखा जाता है। यहां जितने भी मुख्यमंत्री हुए वे सभी सवर्ण वर्ग से ही हुए हैं, वह चाहे बीजेपी के रहे हों या कांग्रेस लेकिन राज्य में दलित आबादी कम नहीं है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार राज्य की दलित आबादी 18.50 प्रतिशत है। उसी के अनुरूप राज्य की 70 विधानसभा सीटों में 13 सीट अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित हैं।

राज्य बनने के बाद से हुए चुनावी नतीजों पर नजर डालें तो बीएसपी यहां 2002, 2007, 2012 चुनाव में लगातार 11 से 12 प्रतिशत वोट पाती रही है। माना जाता रहा है, उसके इस वोट में बड़ा हिस्सा दलित समाज का ही रहा है, हालांकि बहुत ज्यादा सीट जीतने में वह कामयाब नहीं रही। वह 3 से 8 सीट तक ही जीती। 2014 से देश की राजनीति में जो बदलाव हुआ, उसका असर उत्तराखंड की राजनीति पर भी पड़ा। 2017 के चुनाव में दलित वोटर्स का बड़ा हिस्सा बीजेपी के साथ चला गया। बीएसपी का वोट सिर्फ सात प्रतिशत ही रह गया।

‘दलित कार्ड’ से कांग्रेस को कितना फायदा?
उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी की भी एंट्री हो रही है। वह जितना नुकसान बीजेपी का करेगी, उतना कांग्रेस का भी करेगी। ऐसे में कांग्रेस को आम आदमी पार्टी के जरिए होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए अतिरिक्त वोट की जरूरत होगी। उधर बीएसपी ने इस बार दलित+मुसलमान का कार्ड खेला हुआ है।

राज्य में करीब 14 प्रतिशत मुस्लिम वोट हैं जोकि कांग्रेस के साथ जाते रहे हैं। बीएसपी के दलित+मुस्लिम कार्ड से भी कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगने का खतरा है। ऐसे में कांग्रेस को यह लगता है कि अगर वह एकमुश्त 19 प्रतिशत दलित वोट के साथ चुनाव मैदान में दांव लगाती है तो यह कहीं ज्यादा फायदेमंद रहेगा। इस दांव के पीछे कांग्रेस की आंतरिक राजनीति भी काम कर रही है।

हरीश रावत को अभी तक कांग्रेस नेतृत्व इस वजह से मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित नहीं कर पाया है, क्योंकि दूसरा गुट उनका विरोध कर रहा है। प्रीतम सिंह हरीश रावत को सीएम के रूप में नहीं देखना चाहते। हरीश रावत ने दलित सीएम की मांग कर सबको चित कर दिया है। कांग्रेस आलाकमान को भी लगता है कि दलित सीएम का विरोध कोई भी नहीं कर पाएगा।

कौन हो सकता है दलित चेहरा?
राज्य में कांग्रेस के पास इस वक्त सबसे बड़ा दलित चेहरा प्रदीप टम्टा हैं, जो राज्यसभा सदस्य हैं। इसके अलावा पार्टी के राज्य कार्यकारी अध्यक्ष डॉ. जीत राम भी दलित ही हैं। कभी यशपाल आर्य राज्य में कांग्रेस के सबसे बड़े दलित नेता हुआ करते थे लेकिन वह अब बीजेपी में हैं।

प्रदीप टम्टा को हरीश रावत का करीबी माना जाता है। इसी वजह से यह भी कहा जा रहा है कि हरीश रावत ने दलित सीएम का दांव इसलिए चला है कि अगर उन्हें यह पद नहीं मिलता है तो उनके किसी करीबी के पास ही यह पद बना रहे।