वो पांच ‘एक्सरे’ जिसने बिहार में बदला वोटिंग का पैटर्न, गौर से देखिए दो फेज की स्कैनिंग

Those five 'X-rays' which changed the voting pattern in Bihar, look carefully at the two phase scanning
Those five 'X-rays' which changed the voting pattern in Bihar, look carefully at the two phase scanning
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पटना: लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण का मतदान खत्म हो गया। तीसरे के लिए नामांकन जारी है। दो चरणों में 190 (पहले में 102 तो दूसरे में 88) सीटों के लिए मतदान हुआ। मतदान के आंकड़े बताते हैं कि इस बार मतदाताओं में उत्साह नहीं है। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो 2014 और 2019 में जिस तरह नरेंद्र मोदी की लहर स्पष्ट दिख रही थी, इस बार वैसी कोई लहर नहीं है। इंडी अलायंस भी समझ नहीं पा रहा कि पिछले मुकाबले छह प्रतिश कम मतदान का रुझान क्या है। कोशिशें दोनों ओर से खूब हुईं। इंडी अलायंस की ओर से राहुल गांधी स्टार कैपेनर रहे तो एनडीए में नरेंद्र मोदी ने खूब सभाएं कीं। पर कम मतदान ने सबको उलझा कर रख दिया है। इसे मतदाताओं की मतदान के प्रति अरुचि कहें कहें या गर्मी का सितम, पर कम वोटिंग जहां चुनाव आयोग के लिए चिंता कि विषय बना हुआ है, वहीं राजनीतिक पार्टियों के वोटों का ट्रेंड समझने में पसीने छूट रहे हैं। दो चरणों के मतदान से एक बात जरूर समझ में आई है कि इस बार किसी कैंडिडेट या पार्टी के प्रति मतदाताओं का मन बनाने में कई फैक्टर काम कर रहे हैं। बिहार में भी यही हाल रहा, तेज नजरों से स्कैन किया जाए तो ये पैटर्न साफ दिखेगा कि इस बार वोटिंग पिछली दफे के मुकाबले काफी कम हुई है। आखिर क्यों?

पहला- राज्यों में गठबंधन का नेता
वैसे तो यह सर्वविदित है कि एनडीए को पीएम नरेंद्र मोदी के चेहरे पर अधिक भरोसा है। भरोसा हो भी क्यों नहीं। पिछले दो चुनावों में नरेंद्र मोदी के चेहरे ने ही कमाल किया। इतना ही नहीं, दोनों आम चुनावों के बाद कई राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में भी मोदी ने ही अपना चेहरा सामने रखा। पर, इस बार राज्यों का स्थानीय नेतृत्व भी चुनाव पर असर डालता दिख रहा है। उदाहरण के तौर पर बिहार को देखें तो नरेंद्र मोदी ने न सिर्फ अपने काम गिनाते-बताते रहे, बल्कि सीएम नीतीश कुमार के कामों का भी उन्होंने उल्लेख किया। नीतीश कुमार भी अपने काम बता कर लोगों से वोट मांगते रहे हैं। यानी राज्यों में गठबंधन के शीर्ष नेता की भूमिका भी इस बार महत्वपूर्ण दिख रही है। उसके प्रति जनता की खुशी-नाखुशी भी महत्वपूर्ण हो गई है। यही वजह है कि एनडीए के लिए बिहार में नरेंद्र मोदी के अलावा नीतीश कुमार महत्वपूर्ण हो गए हैं तो इंडी अलायंस में लालू यादव और उनके बेटे तेजस्वी यादव कांग्रेस के स्टार कैंपेनर राहुल गांधी पर भारी पड़ते दिख रहे हैं। टिकट बंटवारे से लेकर चुनाव प्रचार तक बिहार में तेजस्वी यादव ने ही लोगों को अधिक प्रभावित किया है।
इस बार मोदी के प्रति मतदाताओं में गुस्सा नहीं, बल्कि उदासीनता है। मोदी को राशन का श्रेय तो लोग दे रहे हैं, लेकिन इस बार उनके नाम पर वोट की उत्सुकता नहीं दिखती। बीजेपी के अधिकांश सांसदों और स्थानीय नेताओं के खिलाफ लोगों में गुस्सा दिख रहा है।

दूसरा- प्रधानमंत्री का चेहरा कौन है
मतदाताओं का बड़ा वर्ग प्रधानमंत्री के चेहरे को देख-जान कर वोट करता है। एनडीए की ओर से नरेंद्र मोदी पीएम के निर्विवाद चेहरा हैं तो इंडी अलायंस में पीएम फेस को लेकर सस्पेंस अब भी बरकरार है। बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने बंगाल में इंडी अलायंस के दूसरे दलों को तरजीह नहीं दी, लेकिन दावा करती रही हैं कि वे ही अलायंस का नेतृत्व करेंगी। राहुल गांधी तो कांग्रेस के स्वयंभू पीएम फेस लगातार तीसरी बार बने हुए हैं। यानी इंडी अलायंस में अब भी कोई सर्वमान्य चेहरा पीएम पद के लिए नहीं है। ऐसे में जो मतदाता पीएम का चेहरा देख कर वोट करते रहे हैं, उनके सामने स्पष्ट तौर पर नरेंद्र मोदी का चेहरा ही दिखाई पड़ता है। यह भी सच है कि नरेंद्र मोदी ने एनडीए के दूसरे दलों के वोटों के अलावा अपना खासा वोट आधार देश भर में तैयार कर लिया है। अगर पीएम के चेहरे पर वोट का ट्रेंड इस बार भी रहा तो नरेंद्र मोदी दूसरे विपक्षी नेताओं पर यकीनन भारी पड़ेंगे।

तीसरा- मैदान में उम्मीदवार कैसा है
इस बार मतदाताओं का रुझान अपने पसंद के उम्मीदवारों के प्रति भी दिख रहा है। यानी मतदाता यह देख रहे हैं कि कौन उम्मीदवार उनके कितना करीब है। उनके सुख-दुख में कौन शामिल हो सकता है या पहले से होता रहा है। यही वजह है कि सिवान में हिना शहाब खूब भीड़ जुटा रही हैं तो पप्पू यादव ने पूर्णिया में अपना जलवा दिखाया। मुंगेर में आरजेडी के टिकट पर लड़ रही कुख्यात अशोक महतो की पत्नी और वैशाली में मुन्ना शुक्ला की बीवी भी इसी भरोसे मैदान में हैं कि वोटरों की एक बड़ी जमात उन्हें पसंद करती है।

चौथा- उम्मीदवार की जाति क्या है
वैसे तो जाति के आधार पर वोटिंग राष्ट्रीय बीमारी बन गई है, पर बिहार में यह कुछ अधिक ही मुखर होकर दिखती है। दोनों गठबंधनों में शामिल तकरीबन हर पार्टी ने जातिगत समीकरणों का ख्याल रखा है। बिहार में कोइरी (कुशवाहा) जाति की आबादी 11.83 लाख है। इस बार सभी दलों ने 11 कुशवाहा को लोकसभा का टिकट दिया है। यादवों की आबादी बिहार की कुल जनसंख्या में 14 प्रतिशत है, लेकिन अकेले आरजेडी ने आठ यादवों को टिकट दिया है। भाजपा ने भी नित्यानंद राय, रामकृपाल यादव और अशोक यादव को टिकट देकर यादवों के प्रति उदारता बरती है। हालांकि भाजपा को भी पता है कि यादव और मुसलमान उसे कम ही वोट देते हैं। भाजपा ने जिन यादवों को टिकट दिया है, वे पहले भी चुनाव जीत कर सांसद बन चुके हैं।

पांचवां- एंटी इनकंबैंसी का भी असर
यह भी सच है कि लोगों में अपने जनप्रतिनिधियों के प्रति नाराजगी है। ऐसा होता रहा है। कोई भी एमपी-एमएलए सबको खुश नहीं रख सकता। यह भी सच है कि चुनाव जीतने के बाद ज्यादातर एमपी-एमएलए क्षेत्र में झांकने तक नहीं जाते। ऐसे में एंटी इनकंबैंसी स्वाभाविक है। मतदान के प्रति अगर बिहार में इस बार अरुचि दिख रही है तो इसकी एक वजह यह भी है। देखना है कि एंटी इनकंबैंसी इस बार कितना असरदार होगा।