बिहार की चार सीटों का मतदान दिखाता है वोटर्स की उदासीनता, भाजपा मुश्किल में तो राजद की भी राह नहीं आसान

Voting for four seats in Bihar shows the apathy of the voters, BJP is in trouble and even RJD's path is not easy.
Voting for four seats in Bihar shows the apathy of the voters, BJP is in trouble and even RJD's path is not easy.
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पूरे देश में कल यानी 19 अप्रैल को लोकसभा के पहले चरण का मतदान हो गया. इसमें बिहार की चार सीटों पर भी मतदाताओं का फैसला ईवीएम में बंद हो गया है. औरंगाबाद, नवादा, जमुई और गया में मतदान का प्रतिशत काफी कम रहा है और इससे सभी राजनीतिक दलों की भौं पर बल पड़ गए हैं. 2019 में इन सीटों पर मतदान का प्रतिशत जहां पिछले चुनाव में औसतन 53.47 फीसदी था, इस बार निर्वाचन आयोग के अंतिम आंकड़ों में यह 50 फीसदी के आसपास ही है.

मतदाता हैं उदासीन

बिहार में वोटिंग का प्रतिशत कम रहने के पीछे एकमात्र कारण गरमी ही नहीं है. ऐसा तो नहीं था कि लोगों ने कल काम नहीं किया या बाहर नहीं निकले. तो, वोटिंग कम होने का सीधा-सीधा मतलब है कि मतदाताओं का रुझान मतदान के प्रति कम है. ये जो कम वोटिंग हुई है, उसका कारण यही माना जाना चाहिए कि मतदाताओं में निराशा और उदासीनता ही है. 2019 में इन सीटों की वोटिंग अगर देखें तो उसके हिसाब से इन चार सीटों पर 53.47 फीसदी तक औसत मतदान हुआ था. इस बार इन चारों सीटों का औसत मतदान 48 फीसदी से थोड़ा अधिक है, यानी पांच फीसदी की गिरावट इस बार के मतदान में आयी है. अब ऐसे में जो सत्ताधारी दल हैं या यहां से जो सांसद जीते हैं, उनके लिए यह एक राहत की बात हो सकती है कि पांच फीसदी तक मतदान कम होना उनके लिए बहुत खतरे की बात नहीं होती, लेकिन अगर एक या दो फीसदी मतदाता भी स्विंग कर जाते हैं, पाला बदल लेते हैं, तो जो हालात होंगे, वो बहुत खराब होंगे. तो, अब 4 जून तक यहां के जो प्रत्याशी हैं, वे काफी परेशान रहेंगे. इन इलाकों में छह बूथ ऐसे भी हैं, जहां मतदाताओं ने पूरी तरह वोटिंग का बहिष्कार किया था. तो, प्रत्याशियों के बाहरी या पैराशूट से उतारे जाने का भी प्रभाव पड़ा है.

बाहरी प्रत्याशी भी हैं वजह

दूसरी बात देखने की यह भी है कि जो भी महिला प्रत्याशी हैं, उनमें से अधिकांश किसी न किसी माफिया या दबंग की पत्नी हैं. उनके पति आपराधिक मामलों की वजह से चुनाव नहीं लड़ सकते, इसलिए उनकी पत्नियों को दलों ने टिकट दे दिया है. यह आगे के चुनाव में भी देखने को मिलेगा. जैसे, पूर्णिया से बीमा भारती खड़ी हैं और उनके पति अवधेश मंडल अपराधी के तौर पर जाने जाते हैं. दूसरे उम्मीदवार पप्पू यादव हैं, जिन पर इस तरह के कई आपराधिक मामले दर्ज हैं. मुंगेर में जो राजद उम्मीदवार हैं, अनीता देवी, उनके पति अशोक महतो पर कुख्यात नवादा जेल ब्रेक में शामिल होने का आरोप है और उन पर खाकी-द बिहार चैप्टर नामक वेबसीरीज ही बन चुकी है. जब हम कहते हैं कि बिहार में बाहुबल कोई नयी बात नहीं है, तो यह अधूरा सच होता है. पूरे देश में ही राजनीति का अपराधीकरण बेहद आमफहम बात है. हां, बिहार में जनता के साथ ही पत्रकार भी, लेखक भी और नेता भी इस बात को स्वीकार लेते हैं. जैसे, यहां अशोक महतो पर वेब-सीरीज बनी तो कोई हंगामा नहीं होता. लोग जानते हैं कि वो ऐसा था या उसने ऐसा किया था, लेकिन अगर उदाहरण के लिए हम मध्य प्रदेश की बात करें, उत्तर प्रदेश की बात करें या कहीं और की बात करें तो वहां भी इस तरह के नेता रहे हैं, बस उन पर कभी हल्ला-गुल्ला नहीं होता है.

भाजपा है मुश्किल में

जहां तक बिहार में भाजपा की बात है, तो हालांकि अभी चार ही सीटों पर चुनाव हुए हैं और उस हिसाब से बहुत कुछ नहीं कहा जा सकता है, लेकिन इन सीटों के रुझान को देखें तो भाजपा मुश्किल में है. बिहार भाजपा में न तो कोई ऐसा नेता है, जिसको पूरा बिहार स्वीकार करता हो, न ही कोई य़ुवा या क्रांतिकारी छवि वाला नेता है, जो सुधार या बदलाव का प्रतीक हो. कोई ऐसे नेता भी नहीं हैं जिनको उनके इलाके में हुए काम के लिए जाना जाए. एक आरटीआई के जरिए जब सांसदों के गोद लिए गांव की हालत पता करने का प्रयास किया गया, तो पूरे भारत में कोई गांव ऐसा नहीं है, जिसको किसी सांसद ने गोद लिया हो और वहां 40 फीसदी काम नहीं हुआ हो. बिहार में यह प्रतिशत 12 से 20 फीसदी तक सिमट कर रह जाता है. अब यहां आप अगर वोट मांगने जाते हैं तो खुद को डिफेंड करना मुश्किल हो जाता है. यह बिहार के हरेक सांसद के लिए सच है. इसलिए, जनता की उदासीनता दिखती है. एक वायरल वीडियो में अभी जैसे दिख रहा है कि पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी अपने इलाके में प्रचार के लिए जा रहे हैं, लेकिन वहां लोग बैठे ताश खेल रहे हैं और अपनी पीठ भी नहीं मोड़ते. यह जनता की उदासीनता को दिखाता है. उसी तरह दूसरे सांसदों को भी घेरा जा रहा है. जनता अब हिसाब मांग रही है.

राजद भी बहुत अच्छी स्थिति में हालांकि नहीं है. जैसा कि तेजस्वी यादव ने दावा किया था कि जैसे उनके पिता ने आडवाणी का रथ रोका, वह बिहार से ही मोदी के विजयरथ को रोकने की शुरुआत करेंगे, वह दावा तो अभी बहुत जल्दी की स्थिति में है, लेकिन हां, टक्कर कड़ी है, मुकाबला बहुत नजदीकी है, ऐसा जरूर समझा जाना चाहिए. केवल चार सीटों के आधार पर कोई भविष्यवाणी करना तो मुश्किल होगा, लेकिन फिर भी यह तो समझ में आ रहा है कि भाजपा की मुश्किल तेजस्वी की बढ़त है. देखने की बात यह होगी कि इस बार के साइलेंट चुनाव में जातिगत समीकरण कितने काम आए हैं, जो प्रतिबद्ध मतदाता हैं, वे अपनी पार्टी के लिए कितने समर्पित रहे हैं और नये वोट कितने जुड़े हैं?