सपा-रालोद गठबंधन से वेस्ट यूपी में बीजेपी को होगा कितना नुकसान! यहां जानिये

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लखनऊ. उत्तर प्रदेश में अगले साल फरवरी-मार्च में होने वाले चुनाव से पहले हर रोज सियासत करवट बदल रही है. गठबंधन इसमें एक अहम कड़ी है. समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के बीच गठबंधन को लेकर ये आकलन किया जा रहा है कि इससे किसको कितना फायदा और किसको कितना नुकसान होगा. सपा और आरएलडी में गठबंधन का पश्चिमी यूपी में कितना असर देखने को मिलेगा.

दरअसल पश्चिमी यूपी में लंबे अरसे बाद 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने क्लीन स्वीप किया था. हालांकि 2022 के चुनाव में स्थितियां बदलती दिख रही हैं. अब सपा-रालोद के गठबंधन के बाद सियासी समीकरण उलट गए हैं, लेकिन सवाल उठता है कि ये गठबंधन किस हद तक सफल रहेगा?

पश्चिमी यूपी में राष्ट्रीय लोकदल एक बड़ी सियासी ताकत थी, लेकिन चुनाव दर चुनाव उसकी हालत पतली होती गई. यहां तक कि 2017 के चुनाव में उसे सिर्फ एक सीट छपरौली की मिली. कहा गया कि मुजफ्फरनगर दंगे के बाद रालोद को जिताने वाली जाट-मुस्लिम एकता के खण्डित होने से ऐसा हुआ. अब हालात बदल गए हैं. कहा जा रहा है कि किसान आंदोलन से पनपे आक्रोश ने दोनों को फिर से साथ खड़ा कर दिया है. यानी रालोद के पैर जम गये लगते हैं. अब समाजवादी पार्टी भी उसके साथ खड़ी है. ऐसे में इस गठबंधन को सोने पर सुहागा कहा जा रहा है.

आरएलडी के निराशाजनक रहे हैं पिछले चुनाव के आंकड़े
पिछले चुनाव के आंकड़े रालोद के लिए बहुत निराशाजनक थे. 277 सीटों पर पार्टी ने चुनाव लड़ा था, लेकिन 266 सीटों पर उसके उम्मीद्वारों की जमानत जब्त हो गई थी. उसे सिर्फ 2.59 फीसदी वोट मिले थे. महज चार सीटों बरौत, सादाबाद, मांट और बल्देव में पार्टी दूसरे नंबर पर थी. 13 सीटों पर तीसरे नंबर पर थी. बहुत सी तो ऐसी सीटें रहीं, जिसपर रालोद को नोटा (None of the above) से भी कम वोट मिले थे.

इस आंकड़े से साफ है कि रालोद का बेस पूरी तरह चकनाचूर हो गया था. तो क्या अचानक महज किसान आंदोलन के कारण पार्टी फिर से फर्राटा भरने लगी है. 2013 में हुआ मुजफ्फरनगर दंगा हिन्दु-मुस्लिम दंगा नहीं था, बल्कि ये जाट-मुस्लिम दंगा था. दोनों के अलग होने से रालोद की कमर टूट गयी थी. उसी के बाद से रालोद लगातार भाईचारा सम्मेलन कर रही है. इससे फर्क पड़ा है. ऊपर से किसान बिल और खेती के सामान खाद, बीज, डीजल की बढ़ती कीमतों से किसानों में भाजपा के खिलाफ गुस्सा बढ़ता गया. इसका सीधा फायदा रालोद को होगा. ये पार्टी के पारम्परिक वोट बैंक रहे हैं. दूसरी तरफ सपा के साथ लंबे समय से चले आ रहे गठबंधन को गांव-गांव तक कार्यकर्ता स्वीकार कर चुके हैं. हालांकि ये भी सच है कि भाजपा चुनाव तक कौन सा नया अस्त्र-शस्त्र लेकर आये, कहा नहीं जा सकता.

कृषि कानूनों की वापसी से बीजेपी को कितना फायदा?
तो क्या तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने से भाजपा को कोई फायदा नहीं होगा? इस सवाल के जवाब में राजेन्द्र सिंह ने कहा कि फौरी तौर पर भाजपा को दो फायदे होते नजर आ रहे हैं. पहला तो ये कि अब भाजपा के नेता गांव में बिना किसी डर के जा सकेंगे. भाजपा नेताओं को विरोध के चलते सार्वजनिक कार्यक्रमों से दूरी बनानी पड़ी थी. दूसरा ये कि पीएम नरेन्द्र मोदी को लेकर कायम हो रही एक धारणा टूटेगी. गांव-गांव तक ये बात चर्चा में आ गई थी कि भाजपा सरकार किसानों के बजाय पूंजीपतियों के साथ खड़ी है.

फिलहाल नतीजों को लेकर माहौल जरूर बनाया जा रहा है कि राजनीति में कब कौन सा पत्ता आगे हो जाये और कौन सा पीछे, अभी से कुछ कहना जल्दबाजी होगी.