देश का प्रधानमंत्री शहद जैसा मीठा है तो इसमें आपत्ति कैसी? क्या चाहते हैं टिकैत

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नई दिल्‍ली. अगले साल कई राज्‍यों में चुनाव से ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार को बड़ा राजनीतिक दांव चल दिया। गुरु पर्व के दिन देश को संबोधित करते हुए उन्‍होंने तीन विवादित कृषि कानूनों का वापस लेने का ऐलान किया। इसने कृषि कानूनों पर हो रही राजनीति को एक झटके में खत्‍म कर दिया। चुनावी महारण में उतरने से पहले एक तरह से विपक्षियों को पीएम मोदी ने इस कदम से निहत्‍था कर दिया।

हालांकि, अब बड़ा सवाल यह है कि किसान कब वापस लौटेंगे। किसानों के वापस लौटते ही सारा विवाद खत्‍म हो जाएगा। उस स्थिति में किसानों के नाम पर राजनीति चमकाने वालों के पास कोई मुद्दा नहीं बचेगा। यह बात किसान आंदोलन को हवा देने वाले राकेश टिकैत जैसे नेताओं को भी खूब समझ आ रही है। यही वजह है कि अब बेवजह की बातें बनाई जाने लगी हैं।

टिकैत ने प्रधानमंत्री की बोली-वाणी पर ही सवाल उठा दिए हैं। जिस प्रधानमंत्री ने पूरे देश के सामने माफी मांगी हो और हाल में कोई भी कदम उठाकर पीछे न गया हो, उस पर ऐतबार नहीं करने का कारण समझ के परे है। यह और बात है कि टिकैत को उनकी बातों पर यकीन नहीं है। उन्‍हें प्रधानमंत्री के मृदुभाषी होने पर भी आपत्ति है।

राकेश टिकैत ने एक चैनल से बातचीत में प्रधानमंत्री को हद से ज्‍यादा मीठा बताया। उन्‍होंने कहा कि पीएम को इतना मीठा भी नहीं होना चाहिए। टिकैत बोले कि 750 किसान शहीद हुए, 10 हजार मुकदमे हैं। बगैर बातचीत के कैसे चले जाएं। प्रधानमंत्री ने इतनी मीठी भाषा का इस्‍तेमाल किया कि शहद को भी फेल कर दिया। हलवाई को तो ततैया भी नहीं काटता। वह ऐसे ही मक्खियों को उड़ाता रहता है।

इस तरह टिकैत ने साफ इशारा किया कि कुल मिलाकर उन्‍हें प्रधानमंत्री की बातों पर यकीन नहीं है। यानी चीजें जस की तस बनी हुई हैं। अलबत्‍ता, टिकैत ने सरकार ने सामने और कई मुद्दे रख आंदोलन को जारी रखने का संकेत दिया है। न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य (एमएसपी) बढ़ाने का मुद्दा इनमें शामिल है।

क्‍या खत्‍म नहीं होने जा रहा आंदोलन?
किसान आंदोलन के कारण राकेश टिकैत को राष्‍ट्रीय स्‍तर पर पहचान मिली है। इसके खत्‍म होते ही इस पर संसद से लेकर सड़क तक चल रही राजनीति भी खत्‍म हो जानी है। फिर कोई इसे राजनीतिक मुद्दा नहीं बना पाएगा। ऐसे में इस आंदोलन को जिंदा रखना जरूरी हो गया है। टिकैत की बातों से भी इसे समझना मुश्किल नहीं है। उन्‍होंने कहा है कि सरकार बिना फंसे कहां बात मान रही। हम तो पूंछ अटका कर रखेंगे। सवाल है कि यह पूंछ आखिर कितनी लंबी और यह कब तक अटकी रहेगी? क्‍या तीन कृषि कानूनों की वापसी के बाद भी हालात में कोई सुधार नहीं होगा? मेनू में और कौन-कौन सी डिमांड है, जिसे अभी रखा जाएगा?

क्‍या बोले थे पीएम?
गुरु नानक जयंती पर शुक्रवार सुबह देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन विवादास्पद कृषि कानूनों पर आखिरकार अपनी सरकार के कदम वापस खींच लिए थे। उन्‍होंने देश से ‘क्षमा’ मांगते हुए इन्हें निरस्त करने और एमएसपी से जुड़े मुद्दों पर विचार करने के लिए समिति बनाने की घोषणा की थी। उन्‍होंने कहा था कि तीन कृषि कानून किसानों के फायदे के लिए थे, लेकिन ‘हम सर्वश्रेष्ठ प्रयासों के बावजूद किसानों के एक वर्ग को राजी नहीं कर पाए।’ इसी के साथ उन्होंने तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करने की घोषणा की थी।

क्‍या पहले रोलबैक नहीं हुए?
मोदी सरकार ने हाल में शायद ही किसी फैसले पर कदम उठाकर पीछे लिए हों। ऐसा करते हुए उसने राजनीतिक नफे-नुकसान के बारे में भी नहीं सोचा। जीएसटी, नोटबंदी और आर्टिकल 370 हटाने के कदम इसके उदाहरण रहे हैं। लेकिन, किसानों के मामले में उसने ऐसा नहीं किया। यहां बात हार-जीत और झुकने-झुकाने की बिल्‍कुल नहीं है। पहले भी सरकारें अपने फैसलों को वापस लेती रही हैं। किसी कानून को बनाने की मंशा लोगों की भलाई होती है, लेकिन जब लोग ही उससे खुश नहीं तो ऐसे कानून की क्‍या जरूरत। दूसरी बात यह है कि मृदुभाषी होना कैसे किसी का अवगुण हो सकता है।

एक साल से जारी है आंदोलन
पिछले लगभग एक साल से कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून, कृषि (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा करार कानून और आवश्यक वस्तु संशोधन कानून, 2020 के खिलाफ विभिन्न राज्यों और राजधानी दिल्ली की अलग-अलग सीमाओं पर किसान संगठन आंदोलन कर रहे हैं। इसमें सुप्रीम कोर्ट ने भी हस्‍तक्षेप किया है। हालांकि, यह अभी भी यह साफ नहीं है कि आंदोलन कब खत्‍म होगा।

क्‍या कहते हैं जानकार?
विवादित कृषि कानूनों पर सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त समिति के सदस्‍य अनिल जे घनवट ने पीएम के ऐलान के तुरंत बाद ही प्रतिक्रिया दी थी। घनवट ने कहा था कि आंदोलनकारियों ने आगामी विधानसभा चुनावों तक प्रदर्शन की योजना बनाई थी। सरकार के फैसले पर नाखुशी जताते हुए घनवट ने कहा था कि इस फैसले से आंदोलन भी खत्म नहीं होगा। कारण है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानून का रूप देने की उनकी मांग अभी बाकी है। इस फैसले से भाजपा को राजनीतिक रूप से भी फायदा नहीं होगा।