गहलोत से बन नहीं रही, कांग्रेस आलाकमान सुन नहीं रहा; अकेले पड़े पायलट के पास क्या ऑप्शन?

Gehlot is not getting along, the Congress high command is not listening; What option does a lonely pilot have?
Gehlot is not getting along, the Congress high command is not listening; What option does a lonely pilot have?
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जयपुर। चुनावी साल में राजस्थान कांग्रेस की अंदरूनी खींचतान दिनोंदिन तीखी होती जा रही है। पूर्व डिप्टी सीएम सचिन पायलट अपनी ही सरकार के खिलाफ ‘जन संघर्ष’ यात्रा निकाल रहे हैं। यात्रा के दौरान पायलट के साथ बड़ी संख्या में लोगों का काफिला मार्च कर रहा है। पायलट वसुंधरा राजे की सरकार के दौरान हुए कथित घोटालों की जांच कराए जाने की मांग कर रहे हैं। उनका कहना है कि कांग्रेस ने जनता से इन घोटालों की जांच कराने का वादा किया था लेकिन साढ़े चार साल बाद भी इस बारे में कदम नहीं उठाया गया है। मौजूदा खींचतान से साफ है कि पायलट की गहलोत से बन नहीं रही है। साथ ही आलाकमान उनकी सुन नहीं रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि सचिन पायलट के पास अब क्या विकल्प हैं।

इन विषम सियासी परिस्थितियों में घिरे सचिन पायलट की अगली योजना क्या होगी। क्या पायलट कांग्रेस में रहकर ही गहलोत को घेरते रहेंगे? या वह कांग्रेस छोड़कर किसी नई पार्टी में शामिल होंगे? या वह कोई नई पार्टी खड़ी करेंगे? कांग्रेस नेता (Sachin Pilot Next Plan) ने खुद अपनी अगली योजना के बारे में जानकारी दी। जन संघर्ष यात्रा के दौरान संवाददाताओं से बातचीत में पायलट ने कहा कि वह कांग्रेस में थे, कांग्रेस में हैं और कांग्रेस में ही रहेंगे।

पायलट के जवाब से जाहिर है कि वह कांग्रेस को छोड़ने वाले नहीं है। फिर कांग्रेस में रहकर अपनी ही सरकार को घेरने का क्या मतलब है। पायलट ने कहा- लोकतंत्र में जब सरकारें जनता की बातें नहीं सुनतीं तो लोगों को मजबूरन सड़कों पर उतरना पड़ता है। मेरी जन संघर्ष यात्रा भी इसी विचार का एक हिस्सा है। जिस तरह केंद्र की BJP सरकार के खिलाफ राहुल गांधी को सड़कों पर उतरना पड़ा उसी तरह वसुंधरा राजे सरकार में भ्रष्टाचार की जांच को लेकर मुझे सड़कों पर उतरना पड़ा है।

गौरतलब है कि पायलट का नाम विभिन्न राजनैतिक दलों के साथ जोड़ा जा रहा है। कभी आम आदमी पार्टी में जाने तो कभी, भाजपा और आरएलपी का दामन थामने को लेकर अटकलें लगाई जाती हैं। कभी नई पार्टी बनाने के कयास लगाए जाते हैं। हालांकि पायलट इन अटकलों को खारिज करते रहे हैं। पायलट का कहना है कि उनका एजेंडा किसी से छिपा नहीं है। उन्हें चालबाजी नहीं आती। उन्होंने कभी झूठ की सियासत नहीं की है।

मालूम हो कि पायलट 25 साल से सियासत में हैं। राजस्थान में कांग्रेस जब बेहद खराब दौर से गुजर रही थी तब पायलट ने पार्टी को खड़ी करने के लिए पूरी ताकत झोंक दी थी। उस समय आलाकमान ने सूबे की जिम्मेदारी पायलट के कंधों पर डालते हुए उन्हें प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी थी। पायलट इसका अक्सर जिक्र भी करते हैं। वे अक्सर कहते हैं कि पिछला विधानसभा चुनाव उनके चेहरे पर लड़ा गया था। ऐसे में पायलट के लिए कांग्रेस को छोड़ना इतना सहज नहीं होगा।

सनद रहे सचिन पायलट एवं 18 अन्य कांग्रेस विधायकों ने जुलाई 2020 में गहलोत के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंक दिया था। हालांकि पार्टी आलाकमान के दखल और मानमनौव्वल के महीने भर बाद यह सियासी संकट समाप्त हो गया था। लेकिन पायलट पर बागी होने का जो धब्बा लगा वह आज तक उनका पीछा नहीं छोड़ता है। गहलोत अक्सर इन आरोपों के जरिए पायलट पर हमला बोलते हैं। इन हमलों से पायलट भी बैकफुट पर चले जाते हैं। ऐसे में पायलट के लिए दोबार इस तरह का फैसला लेना आसान नहीं होगा।

ऐसे में सवाल उठता है कि पायलट पार्टी में रहते हुए बार बार अपनी ही सरकार को कटघरे में क्यों खड़ा कर देते हैं। विश्लेषकों का कहना है कि यह पायलट की प्रेशर पॉलिटिक्स का हिस्सा है। पायलट ऐसे दबाव के जरिए चाहते हैं कि पार्टी आलाकमान आगामी विधानसभा चुनाव में उनके खेमे के नेताओं को ज्यादा से ज्यादा तरजीह दे। विश्लेषकों की मानें तो पायलट इस तरह के दबाव के जरिए आलाकमान के जरिए अपनी महत्वाकांक्षा से अवगत कराते रहते हैं। जानकारों का यह भी कहना है कि सूबे की मौजदा सियासी परिस्थितियों में पायलट के पास विकल्प भी बेहद सीमित हैं। पायलट का पार्टी छोड़ना उनके सियासी कॅरियर के लिहाज से बेहद जोखिम भरा फैसला साबित हो सकता है।

विश्लेषकों का यह भी कहना है कि साल 2020 की बगावत के बाद आलाकमान की ओर से भले ही पायलट को कोई बड़ी भूमिका नहीं दी गई हो लेकिन उनकी बातों पर गौर जरूर करता है। बीते दिनों सूबे की सियासी कलह पूरे मुल्क ने देखी। देखा गया कि गहलोत के अड़ंगे के चलते आलाकमान को अपने कदम वापस भी लेने पड़े थे। ऐसे में जब चुनाव में कुछ ही महीने शेष हैं पायलट के लिए बेहतर होगा कि वे पार्टी में रहते हुए अपने वजन को बनाए रखें क्योंकि पंजाब से सबक लेते हुए चुनावी साल में पार्टी आलाकमान भी कोई बड़ा जोखिम मोल लेना नहीं चाहेगा। विश्लेषकों की मानें तो समय समय पर ऐसे ही छोटे मोटे हमलों के जरिए पायलट अपने वजन को बरकरार रख पाएंगे।