अभी अभीः राजस्थान में कांग्रेस ने परिवर्तन का बनाया पक्का मन, अब गहलोत का क्या होगा

Just now: Congress has made a firm mind of change in Rajasthan, now what will happen to Gehlot
Just now: Congress has made a firm mind of change in Rajasthan, now what will happen to Gehlot
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कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी (Soniya Gandhi) ने इसी हफ्ते राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत (Ashok Gehlot )और उनके पूर्व डिप्टी सचिन पायलट (Sachin Pilot) को दो अलग अलग दिन मीटिंग के लिए दिल्ली बुलाया था. इससे दबी जुबान में यही कहा जा रहा है कि पार्टी राजस्थान में अपनी सत्ता बरकरार रखने को लेकर गंभीर है. बता दें कि मरुभूमि में अगले साल यानी 2023 के अंत में नई विधानसभा के लिए चुनाव होने हैं. पंजाब के हालिया चुनावों में आम आदमी पार्टी के हाथों शर्मनाक हार के बाद अब कुछ ही राज्य बचे हैं जहां शासन की कमान कांग्रेस के हाथों में है. फिर जल्द ही अगली लोकसभा के लिए आम चुनाव भी आने वाले हैं. ऐसे में राजस्थान में सत्ता बचाए रखना कांग्रेस के लिए जरूरी हो गया है.

राजस्थान के चुनावों में कांग्रेस को न सिर्फ सत्ता विरोधी लहर से निपटना है, बल्कि इसके सामने मतदाताओं की इस आदत को भी बदलने की चुनौती है जो राज्य में एक पार्टी की सरकार को लगातार दूसरी बार सत्ता में आने का मौका नहीं देते हैं. राज्य में यह ट्रेंड पिछले तीन दशक से चला आ रहा है. पिछले 30 साल से भाजपा और कांग्रेस राज्य में बारी बारी से सरकार बनाते आ रहे हैं और इस तरह देखा जाए जो आगामी चुनावों में राजस्थान पर राज करने की बारी भाजपा की है.

क्या राजस्थान कांग्रेस में शीर्ष स्तर पर बदलाव होगा
हो सकता है कि राजस्थान में कांग्रेस शीर्ष स्तर पर बदलाव न करना चाहे, क्योंकि पंजाब में चुनावों से पहले यही कदम उठाना उसे बहुत भारी पड़ गया था. सत्ता विरोधी लहर को समझने और फिर जरूरी कदम उठाने में उसे बहुत देर हो गई थी. पंजाब में कांग्रेस ने चुनाव से कुछ महीने पहले ही राज्य इकाई के अध्यक्ष और मुख्यमंत्री को बदल दिया और इस रणनीति ने किसी भी स्तर पर उसकी मदद नहीं की.

राजस्थान के चुनावों में अभी करीब 20 महीने बाकी हैं. अगर कांग्रेस को सत्ता में वापसी के इरादे से राज्य में अपने नेतृत्व को बदलना है तो इस कदम को उठाने का यह सही समय है. अगर गहलोत का उत्तराधिकारी सचिन पायलट को बनना है, तो उनको भी तो वोटर्स को रिझाने का पर्याप्त समय मिलना चाहिए.

लेकिन सवाल ये है कि क्या अब गहलोत के लिए पद छोड़ने का समय आ गया है और अगर ऐसा है तो क्यों? गहलोत की छवि पंजाब के पूर्व सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह जितनी खराब नहीं है. हालांकि छवि बिगड़ने के बावजूद पार्टी ने लंबे समय तक उनके साथ बनी रही क्योंकि उनके पास अपने अनुभवी नेता को कुर्सी छोड़ने के लिए कहने का साहस नहीं था.

राजस्थान और पंजाब की परिस्थितियां अलग
अमरिंदर के उलट गहलोत सरकार के खिलाफ राजस्थान में अभी कोई नाराजगी नहीं दिख रही है. हालांकि दोनों के बीच एक तरह की समानता भी है. दोनों ही जहां पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं वहीं गांधी परिवार के बेहद करीबी भी रहे हैं.

अमरिंदर सिंह जहां राजीव गांधी के सहपाठी रहे हैं, वहीं गहलोत अभी छात्र नेता ही थे, जब उनकी मां इंदिरा गांधी ने उनको भविष्य की राजनीति के लिए तैयार करना शुरू कर दिया था. हालांकि दोनों में एक और दिलचस्प समानता है. अमरिंदर सिंह की तरह गहलोत भी शुरूआत में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को अपने नेता के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे, जब तक कि पिछले साल के अंत में उन्हें यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो गया कि पद पर बने रहने के लिए ऐसा करना जरूरी है. और इस तरह और वह पायलट की धमकी से सफलतापूर्वक बच गए.

कांग्रेस पार्टी में गहलोत ने अपना ये मुकाम कैसे पाया – इसकी भी एक दिलचस्प कहानी है. 1977 में आपातकाल हटने के बाद जो लोकसभा चुनाव हुए, उनमें कांग्रेस को करारी शिकस्त मिली और फिर राज्यों में भी नए सिरे से चुनाव करवाए गए. उस समय राजस्थान के लिए कोई उम्मीदवार पार्टी को मिल नहीं रहा था, तब पार्टी ने को चुनाव लड़ने के लिए कहा और वह मान भी गए. उस समय उनकी उम्र 26 साल थी और अपने चुनावी अभियान के लिए उनको अपनी मोटरसाइकिल बेचनी पड़ी थी. इस चुनाव में वह सरदारपुरा सीट से 4,000 वोटों से हार गए थे, लेकिन एक युवा जो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी डटकर खड़े होने का जज्बा रखता है, के तौर पर गहलोत का प्रदर्शन प्रभावशाली माना गया था.

गहलोत की शुरुआती राजनीति
कहा जाता है कि इंदिरा गांधी ने उन सभी लोगों को याद रखा जो 1977 में पार्टी के साथ खड़े रहे थे. इसके बाद उन्होंने गहलोत को 1980 में जोधपुर से लोकसभा सीट का चुनाव लड़ने को कहा. वह मान गए और जीत भी गए. उनकी जीत का जश्न मनाने माली समुदाय के हजारों लोग अपने ट्रकों और ट्रैक्टरों में नई दिल्ली के इंडिया गेट पहुंचे थे और इंदिरा गांधी को इस बात ने और भी प्रभावित किया था. बाकी सब तो अब इतिहास है. उन्होंने केंद्र में एक कनिष्ठ मंत्री के रूप में कार्य किया और पांच बार लोकसभा के लिए चुने गए. इसके बाद 1998 में सोनिया गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर उनको राजस्थान में विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए कहा.

दरअसल इस तरह राजस्थान के मतदाताओं को पार्टी एक नया और विश्वसनीय चेहरा देना चाहती थी. कांग्रेस की ये रणनीति काम कर गई और गहलोत अब मुख्यमंत्री के रूप में अपना तीसरा कार्यकाल पूरा करने जा रहे हैं. उनके दामन पर एकमात्र दाग यही है कि वह राज्य में कांग्रेस और भाजपा सरकारों के वैकल्पिक चक्र को तोड़ने में नाकाम रहे.

गहलोत का प्रदर्शन अच्छा पर कांग्रेस को भरोसा नहीं
राजस्थान को लेकर कांग्रेस नेतृत्व की शायद यही अब एकमात्र चिंता है. गहलोत के नेतृत्व में पार्टी ने अब तक हुए सभी उपचुनावों के साथ-साथ तहत स्थानीय निकाय चुनावों में भी अच्छा प्रदर्शन किया है. फिर भी, ऐसा लग रहा है कि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व इस बात पर उन पर भरोसा नहीं कर पा रहा है कि गहलोत इस दुष्चक्र को तोड़कर भाजपा को सत्ता में आने से रोक सकते हैं.

दूसरी ओर पार्टी के पास सचिन पायलट के रूप में युवा नेता हैं जो न सिर्फ लोकप्रिय चेहरा हैं, बल्कि 2018 के विधानसभा चुनावों में राज्य इकाई अध्यक्ष के रूप में कांग्रेस पार्टी को जीत दिलाने वाले भी माने जाते हैं. इन चुनावों के बाद जब राहुल गांधी ने तत्कालीन पार्टी प्रमुख के रूप में गहलोत को राजस्थान का मुख्यमंत्री नामित किया, तब पायलट को बड़ा झटका लगा था. हालांकि तब वह उपमुख्यमंत्री बनने के लिए सहमत हो गए थे. यह बात और है कि उनके मन में उसी समय ही कड़वाहट पैदा हो गई थी और जो आगे चलकर 2020 में पायलट के विद्रोह की वजह भी बनी जिससे लग रहा था कि गहलोत सरकार जल्द ही गिर जाएगी. इस विद्रोह की वजह पायलट की शिकायत थी कि गहलोत उनको दरकिनार कर रहे हैं.