Shamshera Movie Review: फालतू है टाइम तो जरुर देंखे रणबीर कपूर और संजय दत्त की शमशेरा

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रणबीर कपूर की बड़े परदे पर चार साल बाद हुई वापसी की फिल्म ‘शमशेरा’ से तमाम उम्मीदें लगाए बैठे उनके प्रशंसकों के इंतजार की घड़िया खत्म हुईं और शुक्रवार को फिल्म दुनिया भर के साढ़े पांच हजार से ज्यादा स्क्रीन्स पर रिलीज हो गई। यश राज फिल्म्स के लिए उसका स्वर्ण जयंती साल ठीक नहीं रहा है और इस साल की कंपनी की आखिरी रिलीज फिल्म ‘शमशेरा’ का भी बॉक्स ऑफिस पर सफर कठिन दिख रहा है। फिल्म की कहानी काफी हद तक पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सक्रिय रहे सुल्ताना डाकू से प्रेरित है। फिल्म में नगीना भी है और पहले चिट्ठी भेजकर डकैती डालने के सुल्ताना डाकू के प्रसंग भी है। और हां, सुल्ताना डाकू को पकड़ने के लिए बुलाए गए असल अंग्रेज अफसर फ्रेडी यंग के नाम वाला अंग्रेज अफसर भी यहां मौजूद है। फिल्म को सोचने और फिल्म को बनाने में यहां बस उतना ही फर्क है जितना कि ओपनिग क्रेडिट में फिल्म की लेखिका खिला बिष्ट का नाम हिंदी में खिला ‘बीस्ट’ लिखने में।

जातिगत संदर्भों का प्रतिगामी प्रयोग
फिल्म ‘शमशेरा’ एक लिहाज से देखा जाए सुल्ताना डाकू की कहानी की फिल्मी रूपांतरण है। इस किरदार पर हिंदी सिनेमा में पहले भी फिल्में बन चुकी हैं, लेकिन इस बार यश राज फिल्म्स ने इसे नए सिरे से पेश करने का बीड़ा उठाया। फिल्म की कहानी का कालखंड 1871 से लेकर 1896 के बीच का है। ऋग्वेद की ऋचा ‘ब्राह्मणोस्य मुखमासीत, बाहू राजन्यः कृतः| उरू तदस्य यद्वैश्य:, पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥’ के संदर्भ के साथ अपनी कहानी का आधार बुनने वाली इस फिल्म की शुरुआत ही बहुत प्रतिगामी है। नीची जातियों और ऊंची जातियों के संघर्ष को उभारने की कोशिश में फिल्म का प्रस्थान बिंदु गड़बड़ाता है। फिल्म उन तमाम फिल्मकारों के लिए भी सबक है जो दक्षिण मुंबई की आबोहवा में पलने, बढ़ने के बाद फिल्में उन दर्शकों के लिए बनाते हैं जिनकी दैनिक जीवन शैली से उनका कभी साबका तक नहीं पड़ा।

देश की नहीं कबीले की आजादी
ये कहानी है ‘करम से डकैत, धरम से आजाद’ का नारा गढ़ने वाले शमशेरा की। राजपूताना से उत्तर भारत खदेड़ी गई जनजाति खमेरन का सरदार शमशेरा अंग्रेजों की चाल में फंसता है और अपने पूरे कबीले को काजा में कैद करा देता है। वहां से निकलने की कोशिश में वह मारा जाता है और उसका बेटा बल्ली ‘भगोड़े की औलाद’ के तमगे के साथ खुद एक दिन अंग्रेजों की पलटन का अफसर बनने का सपना देखने लगता है। उसके ज्ञानचक्षु खुलते हैं तो वह पानी के नीचे बनी उसी सुरंग से भाग निकलने में कामयाब होता है जिसे उसके पिता नहीं खोज पाए थे। वह अपने पिता के पुराने साथियों और कुछ नए साथियों को जुटाता है। अंग्रेजों की शर्त के हिसाब से अपने कबीले की आजादी के लिए सोना जुटाने निकले बल्ली को लोग शमशेरा ही समझते हैं और वह भी अपना नाम दीवारों पर शमशेरा लिखवाने लगता है।

नायक पर भारी पड़ा खलनायक
फिल्म ‘शमशेरा’ की कहानी का दूसरा केंद्र बिंदु दारोगा शुद्ध सिंह है। वह परदे पर आता है तो ‘हैरी पॉटर’ सीरीज की फिल्मों सी आवाजें नेपथ्य में सुनाई देती हैं। कहानी 1871 से 1896 तक चली आती है लेकिन ये ऐसा दारोगा है जिसकी बीते 25 साल में तरक्की तक नहीं होती। पुराने शमशेरा को खत्म करने में अहम भूमिका निभाने वाले शुद्ध सिंह को गुमान है कि वह नए शमशेरा को भी पकड़ ही लेगा। लेकिन जब उसका गुमान टूटता है तो अंग्रेज अफसर फ्रेडी यंग को मौके पर भेजा जाता है। इसके बाद कहानी लंबी खिंचती है। पटकथा हांफने लगती है। संवाद खुद को दोहराने लगते हैं और पूरी फिल्म एक ऐसा तमाशा बनकर रह जाती है, जो दर्शकों के पैसे वसूल कराने में कमजोर पड़ती जाती है।

खराब पटकथा और औसत से कमतर संवाद
निर्देशक करण मल्होत्रा ने फिल्म की पटकथा अपनी पत्नी एकता के साथ मिलकर लिखी है। इसे लिखते समय करण और एकता दोनों ने फिल्म के मुख्य किरदारों के आसपास का वातावरण रचने की तरफ ध्यान ही नहीं दिया है। नगीना और काजा के अलावा भी उस वक्त दुनिया में कुछ था, इसका पता पूरी फिल्म में नहीं चलता। पीयूष मिश्रा के लिखे संवाद उस वक्त का असर पैदा नहीं कर पाते हैं जब देश में खड़ी बोली का प्रचार प्रसार होना शुरू ही हुआ था। अवधी और ब्रज बोलने वाला फिल्म में एक भी किरदार नहीं है जो उत्तर भारत की उन दिनों की अहम बोलियां थी। सौरभ शुक्ला के किरदार के जरिये उस वक्त की प्रचलित पद्य संवाद शैली को पीयूष मिश्रा बस छूकर निकल गए हैं।

कला निर्देशन फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी
फिल्म ‘शमशेरा’ का निर्देशन भी औसत से कमतर दर्जे का है। फिल्म सिटी में इसका सेट कोई तीन हजार कारीगरों ने मिलकर दो महीने में तैयार किया था, लेकिन फिल्म का सेट अगर फिल्म का सेट ही दिखता रहे तो इसे बनाने का मकसद नहीं रहता। एक प्रोजेक्ट की तरह पूरी हुई फिल्म ‘शमशेरा’ में सिनेमा नहीं है। ये कैमरे पर शूट किया गया एक ऐसा तमाशा है जो पूरी तरह नकली लगता है, ठीक यश राज फिल्म्स की ही एक और फिल्म ‘ठग्स ऑफ हिंदोस्तां’ जैसा। फिल्म में भव्यता बहुत है लेकिन इसकी आत्मा खोई खोई रहती है। अनय गोस्वामी ने फिल्म को क्रोमा पृष्ठभूमि में चतुराई से शूट किया है लेकिन फिल्म के गानों में उनकी कमजोरी पकड़ में आती है। शिवकुमार पैनिकर ने फिल्म की एडिटिंग पूरी तरह हथियार डालकर की है, इतनी लंबी फिल्म इस कहानी पर होनी नहीं चाहिए थी।

रणबीर और संजय दत्त पर टिकी फिल्म
और, अब बात फिल्म के कलाकारों की। रणबीर कपूर ने अपनी हर फिल्म की तरह यहां भी अपने दोनों किरदारों में जान डालने की पूरी कोशिश की है। वही इस फिल्म को देखने की पहली वजह भी हैं लेकिन जैसा कि उनके पिता ऋषि कपूर ने उन्हें समझाया था कि धोती वाली फिल्मों से दूर ही रहना, वैसी समझ रणबीर कपूर ने यहां दिखाई नहीं है। एक असहाय पति के रूप में वह प्रभाव डालने की पूरी कोशिश करते हैं। लेकिन एक नाकारा बेटे और एक नाचने वाली के प्रेमी के रूप में उनके अभिनय का अक्स ठीक से उभरता नहीं है। बेटे के जन्म के समय बल्ली का अपनी जान बचाने के लिए छुपे रहना भी उनके किरदार को कमजोर करता है। फिल्म में उन पर हर सीन में भारी पड़े हैं शुद्ध सिंह के किरदार में संजय दत्त। संजय दत्त मौजूदा दौर में एक बेहतरीन खलनायक के तौर पर फिल्म दर फिल्म मजबूत हो रहे हैं। फिल्म के बाकी कलाकारों में वाणी कपूर से बेहतर अभिनय इरावती हर्षे का है। सौरभ शुक्ला और रोनित रॉय को यूं लगता है कि बस फ्रेम मजबूत करने के लिए रख लिया गया है।

देखें कि न देखें
एक विशेष कालखंड में बनी फिल्मों का परदे पर असर पैदा करने में सबसे अहम काम फिल्म का संगीत करता है। लेकिन, यहां मिथुन ने अपने गानों में ऐसा कुछ करने की कोशिश भी की हो, लगता नहीं है। उनका पूरा साज आधुनिक है। इसमें कहीं से भी 19वीं सदी का संगीत झलकता तक नहीं है। फिल्म के गाने बेदम हैं और इसका पार्श्व संगीत सिर्फ शोर करता है। फिल्म ‘शमशेरा’ से उम्मीद यही थी कि ये फिल्म दर्शकों को डेढ़ सौ साल पीछे के कालखंड को महसूस करने का एक अच्छा मौका देगी और रणबीर कपूर की काबिलियत को अच्छे से परदे पर उकेरेगी। लेकिन फिल्म पटकथा, निर्देशन, सिनेमैटोग्राफी, संगीत और संपादन हर विभाग में चूकती है। रणबीर कपूर के बहुत कट्टर प्रशंसक हों तो फिल्म टाइमपास के लिए देखने की हिम्मत जुटा सकते हैं, बाकी दर्शकों के लिए फिल्म बहुत बोझिल लग सकती है।