बिहार में पहले चरण में मायूस रहे वोटर; मतदाता बढ़े, लेकिन बूथ तक नहीं पहुंचे, आखिर वजह क्या?

Voters were disappointed in the first phase in Bihar; Voters increased, but did not reach the booth, what is the reason?
Voters were disappointed in the first phase in Bihar; Voters increased, but did not reach the booth, what is the reason?
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पटना: बिहार में लोकसभा चुनाव के पहले चरण की चार सीटों पर अपेक्षा से बहुत कम मतदान हुए। चुनाव आयोग ने मतदान का औसत बढ़ाने के प्रयासों में कोई कसर नहीं छोड़ी। तमाम दलों के नेताओं ने हर मंच से बढ़चढ़ कर वोट करने का आह्वान किया। अखबारों ने भी मतदाताओं को अपने अधिकार और कर्तव्य के प्रति सजग करने के प्रयासों में योगदान किया। बावजूद इन प्रयासों के नतीजा सिफर रहा। नई सदी के पिछले तीन चुनावों के औसत से हम आगे नहीं बढ़ पाए।

चुनाव आयोग के सर्वे ‘ज्ञान, दृष्टिकोण और व्यवहार 2023’ की रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया कि राजनीतिक दलों के प्रति महज 27 फीसदी मतदाताओं ने ही निष्ठा व्यक्त की। जाहिर है, निष्ठा में कमी का जिम्मेदार और कोई नहीं बल्कि राजनीतिक दल ही हैं। सबसे बड़ी चिंता चुनाव के प्रति मतदाताओं का बढ़ता मौन और मायूसी है। इसका असर मतदान में हिस्सेदारी में भी साफ नजर आने लगा है। साक्षरता बढ़ने से मतदान में बढ़ोतरी की जो परिकल्पना थी वह भी धराशायी हो गई है। साक्षरता में दो गुनी तक वृद्धि हो चुकी है, लेकिन मतदान का औसत नहीं बढ़ रहा है। इन चार सीटों पर नई सदी के पहले चुनाव यानी 2004 में सर्वाधिक वोट पड़े। 2009 में सबसे कम। इसके बाद के तीन चुनावों के औसत में बड़ा अंतर नहीं है।

लोकतंत्र के महापर्व के प्रति उत्साह में कमी को तीन- चार अलग- अलग घटनाक्रमों के आईने में देखा जा सकता है। इस बार चुनाव आयोग बिहार में मतदाता बनाने की जीतोड़ मेहनत में जुटा था। 18 से 40 वर्ष तक के 56 लाख लोगों के नाम मतदाता सूची में जोड़ने का लक्ष्य था। इनमें बड़ी तादात युवाओं की है। चुनाव आयोग को मतदाता बनाने में तमाम तरह के पापड़ बेलने पड़े। स्कूलों- कॉलेजों तक में अभियान चलाना पड़ा, तब जाकर 25 लाख 67 हजार लोग मतदाता सूची में जोड़े जा सके। इनमें 09 लाख 26 हजार 422 नए मतदाता हैं जो पहली बार वोट डालेंगे। हमने इस अभियान के दौरान जब युवाओं से बात की तो उनके जवाब हैरत में डालने वाले थे। इनमें ज्यादातर को मतदान का महत्व और अपने दायित्वों की समझ ही नहीं थी।

यह आजादी का अमृत काल है। इस समय 73 फीसदी मतदाता अगर यह कह रहे हैं कि उनकी किसी राजनीतिक दल के प्रति कोई निष्ठा नहीं है तो इससे बड़ी चिंता की बात और क्या हो सकती है। हिन्दुस्तान ने चुनाव प्रचार के दौरान ‘नुक्कड़ पर चुनाव’ कॉलम के तहत पूरे राज्य में नुक्कड़ों, चौक- चौराहों पर मतदाताओं के बीच चुनाव को लेकर होने वाले संवाद को हू-ब-हू कवर किया। इनमें ज्यादातर में एक जैसी प्रतिक्रियाएं सामने आईं कि चुनाव से हमें क्या फर्क पड़ने वाला है। अभी वोट लेना है तो नेता जी दस्तक दे रहे हैं, फिर बाद में उनका दर्शन भी दुर्लभ हो जाता है।

चुनाव आयोग के सर्वे की रिपोर्ट और नुक्कड़ पर संवाद की ध्वनि एक जैसी है। क्या मतदाताओं की राजनीतिक दलों और जनप्रतिनिधियों के प्रति ऐसी अवधारणा गंभीर चिंता का विषय नहीं है? चुनाव के दौरान जिस शिद्दत से वोट पाने की जद्दोजहद सियासतदान करते हैं, क्या वह बाद के पांच वर्षों तक उसका आंशिक सरोकार भी मतदाताओं से रख पाते हैं? बदलते वक्त में नेता के नाम पर वोट पाने की निर्भरता और मिले पांच साल के मौके को सुविधा की तरह उपयोग करने की प्रव़ृत्ति जिस तरह सियासत में बढ़ी है, आज उसी का नतीजा है कि मतदात या तो मौन साध रहे या मायूस नजर आ रहे। उनके उत्साह में कमी आ रही है।

ऐसे में क्या यह जरूरी नहीं कि लोकतंत्र और देशहित में मतदाताओं के मौन या उनकी मायूसी के मायनों पर महामंथन हो। यह समय की भी मांग है। कारणों की गहराई में गए बगैर समाधान निकालना या राजनीति का चेहरा बदलना आसान नहीं होगा। बिहार में पहले चरण की चार सीटों पर मतदान का औसत निराश करने वाला है। नवादा में तो बेहद कम 41.50 फीसदी ही मत पड़े। बाकी तीन में भी 50 से 52 फीसदी ही वोट पड़े। अगले छह चरणों में मतदान का औसत बढ़ेगा यह उम्मीद की जा सकती है।