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नई दिल्ली। हर साल 12 जनवरी को स्वामी विवेकानंद जयंती मनाई जाती है. इस दिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में भी मनाया जाता है. विवेकानंद बहुत कम उम्र में ही संन्यासी बन गए थे. पश्चिमी देशों को योग-वेदांत की शिक्षा से अवगत कराने का श्रेय स्वामी जी को ही जाता है. स्वामी विवेकानंद ने 19वीं शताब्दी के अंत में विश्व मंच पर हिंदू धर्म को एक मजबूत पहचान दिलाई थी. स्वामी विवेकानंद का असली नाम नरेंद्रनाथ दत्त था, जिन्हें नरेन के नाम से भी जाना जाता है. बहुत कम उम्र में ही उनका झुकाव अध्यात्म की तरफ हो गया था.
बचपन से ही बुद्धिमान थे विवेकानंद- स्वामी जी बचपन से ही बहुत बुद्धिमान थे. कहा जाता है कि मां के आध्यात्मिक प्रभाव और पिता के आधुनिक दृष्टिकोण के कारण ही स्वामी जी को जीवन अलग नजरिए से देखने का गुण मिला. स्वामी जी के पिता कलकत्ता उच्च न्यायालय में एक वकील थे. उनके दादा दुर्गाचरण दत्त संस्कृत और फारसी भाषा के विद्वान थे और 25 वर्ष की आयु में साधु बन गए थे. पारिवारिक माहौल ने उनकी सोच को आकार देने में मदद की. नरेन बचपन से ही बहुत चंचल स्वभाव के थे. जैसे-जैसे वो बड़े होते गए, उनमें व्यावहारिक ज्ञान और पौराणिक समझ गहरी होती गई. आइए जानते हैं उनके जीवन की उन बातों के बारे में जब उन्होंने पूरी दुनिया को अपनी बुद्धिमानी और हाजिर जवाबी का लोहा मनवाया. इन घटनाओं से लोग ना सिर्फ अचंभित रह गए बल्कि उनके व्यक्तित्व के प्रति लोगों का आकर्षण भी बढ़ता गया.
जब स्वामी जी ने विदेशी व्यक्ति को दिया करारा जवाब- स्वामी जी एक भिक्षु की तरह कपड़े पहनते थे. वो एक तपस्वी का जीवन जीते थे जो दुनिया भर में यात्रा करते थे और तरह-तरह के लोगों से मिलते थे. एक बार जब स्वामी जी विदेश यात्रा पर गए तो उनके कपड़ों ने लोगों का ध्यान खींचा. इतना ही नहीं एक विदेशी व्यक्ति ने उनकी पगड़ी भी खींच ली. स्वामी जी ने उससे अंग्रेजी में पूछा कि तुमने मेरी पगड़ी क्यों खींची? पहले तो वो व्यक्ति स्वामी जी की अंग्रेजी सुनकर हैरान रह गया. उसने पूछा आप अंग्रेजी बोलते हैं? क्या आप शिक्षित हैं? स्वामी जी ने कहा कि हां मैं पढ़ा-लिखा हूं और सज्जन हूं. इस पर विदेशी ने कहा कि आपके कपड़े देखकर तो ये नहीं लगता कि आप सज्जन व्यक्ति हैं. स्वामी जी ने उसे करारा जवाब देते हुए कहा कि आपके देश में दर्जी आपको सज्जन बनाता है जबकि मेरे देश में मेरा किरदार मुझे सज्जन व्यक्ति बनाता है.
अलवर के महाराजा को सिखाया सबक- ये राजा और स्वामी जी के बीच का एक दिलचस्प किस्सा है. एक बार स्वामी जी अलवर के महाराजा मंगल सिंह के दरबार में पहुंचे. राजा ने उनका मजाक उड़ाते हुए सवाल किया, ‘स्वामी जी, मैंने सुना है कि आप एक महान विद्वान हैं. जब आप आसानी से जीवन यापन कर सकते हैं और एक आरामदायक जिंदगी जी सकते हैं, तो आप एक भिखारी की तरह क्यों रहते हैं?.’ इस पर विवेकानंद ने बहुत शांति से उत्तर देते हुए कहा, ‘महाराजा जी, मुझे बताइए कि आप क्यों अपना समय विदेशी लोगों की संगति में बिताते हैं और अपने शाही कर्तव्यों की उपेक्षा करते हुए भ्रमण पर निकल जाते हैं? स्वामी जी के इस जवाब से दरबार में उपस्थित सभी लोगों अचंभित रह गए. हालांकि, राजा ने भी मौके का फायदा उठाते हुए कहा कि मुझे यह पसंद है और मैं इसका आनंद लेता हूं. उस समय तो स्वामी जी ने बात को यहीं समाप्त कर दिया.
एक बार जब स्वामी जी जब अलवर के महाराजा के दरबार में पहुंचे तो उन्होंने राजा के शिकार किए कई जानवरों के सामान और चित्र देखे. स्वामी जी ने कहा, ‘एक जानवर भी दूसरे जानवर को बेवजह नहीं मारता, फिर आप उन्हें सिर्फ मनोरंजन के लिए इन्हें क्यों मारते हैं? मुझे यह अर्थहीन लगता है. मंगल सिंह ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, ‘आप जिन मूर्तियों की पूजा करते हैं, वो मिट्टी, पत्थर या धातुओं के टुकड़ों के अलावा और कुछ नहीं हैं. मुझे यह मूर्ति-पूजा अर्थहीन लगती है. हिंदू धर्म पर सीधा हमला देख स्वामी जी ने राजा को समझाते हुए कहा कि हिंदू केवल भगवान की पूजा करते हैं, मूर्ति को वो प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करते हैं.
विवेकानंद ने राजा के महल में पिता की एक तस्वीर लगी देखी. स्वामी जी इस तस्वीर के पास पहुंचे और दरबार के दीवान को उस पर थूकने को कहा. ये देखकर राजा को गुस्सा आ गया. उसने कहा, ‘आपने उसे मेरे पिता पर थूकने के लिए कैसे कहा? नाराज राजा को देखकर स्वामी जी बस मुस्कुराए और उत्तर दिया, ‘ये आपके पिता कहां हैं? ये तो सिर्फ एक पेंटिंग है- कागज का एक टुकड़ा, आपके पिता नहीं.’ ये सुनकर राजा हैरान रह गया क्योंकि ये मूर्ति पूजा पर राजा के सवाल का तार्किक जवाब था. स्वामी जी ने आगे समझाया, ‘देखिए महाराज, ये आपके पिता की एक तस्वीर है, लेकिन जब आप इसे देखते हैं, तो ये आपको उनकी याद दिलाती है, यहां ये तस्वीर एक ‘प्रतीक’ है. अब राजा को अपनी मूर्खता का एहसास हुआ और उसने स्वामी जी से अपने व्यवहार के लिए क्षमा मांगी.
नस्लवादी प्रोफेसर को सबक- पीटर नाम का एक श्वेत प्रोफेसर स्वामी विवेकानंद से नफरत करता था. उस समय स्वामी तपस्वी नहीं बने थे. एक दिन भोजन कक्ष में स्वामी जी ने अपना भोजन लिया और प्रोफेसर के बगल में बैठ गए. अपने छात्र के रंग से चिढ़कर, प्रोफेसर ने कहा, ‘एक सुअर और एक पक्षी एक साथ खाने के लिए नहीं बैठते हैं.’ विवेकानंद जी ने उत्तर दिया, ‘आप चिंता ना करें प्रोफेसर, मैं उड़ जाऊंगा’ और ये कहकर वो दूसरी मेज पर बैठने चले गए. पीटर गुस्से से लाल हो गया.
जब बुद्धि की जगह पैसा चुना- प्रोफेसर ने अपने अपमान का बदला लेने का फैसला किया. अगले दिन कक्षा में, उन्होंने स्वामी जी से एक प्रश्न किया, ‘श्री दत्त, अगर आप सड़क पर चल रहे हों और आपको रास्ते में दो पैकेट मिलें, एक बैग ज्ञान का और दूसरा धन का तो आप आप कौन सा लेंगे? स्वामी जी ने जवाब दिया, ‘जाहिर सी बात है कि मैं पैसों वाला पैकेट लूंगा.’ मिस्टर पीटर ने व्यंग्यात्मक रूप से मुस्कुराते हुए कहा, ‘मैं, आपकी जगह पर होता, तो ज्ञान वाला पैकेट लेता. स्वामीजी ने सिर हिलाया और जवाब दिया, ‘हर कोई वही लेता है जो उसके पास नहीं होता है.’
बार-बार मिल रहे अपमान से प्रोफेसर के गुस्से का ठिकाना नहीं रहा. उसने एक बार फिर बदला लेने की ठानी. परीक्षा के दौरान जब उसने स्वामी जी को परीक्षा का पेपर सौंपा तो उन्होंने उस पर ‘इडियट’ लिखकर उन्हें दे दिया. कुछ मिनट बाद, स्वामी विवेकानंद उठे, प्रोफेसर के पास गए और उन्हें सम्मानजनक स्वर में कहा, ‘मिस्टर पीटर, आपने इस पेपर पर अपने हस्ताक्षर तो कर दिए, लेकिन मुझे ग्रेड नहीं दिया.’