उत्तराखंड में कांग्रेस की मार से टुटी बीजेपी की कमर, गड़बड़ा या बीजेपी का समीकरण

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उत्तराखंड में चार महीने के बाद विधानसभा चुनाव होने हैं, जिसे देखते हुए बीजेपी अपने किले को व्यवस्थित और मजबूत रखने की कोशिश में जुटी है. बीजेपी ने पुष्कर सिंह धामी को सीएम की कुर्सी सौंप कर बड़ा दांव चला है. बीजेपी का ये कदम कुमाऊं इलाके के सियासी समीकरण को दुरुस्त करने वाला माना जा रहा है, हालांकि चुनावी पारा जैसे-जैसे चढ़ रहा है, वैसे-वैसे सीएम धामी के कुमाऊं क्षेत्र में बीजेपी की चुनौतियां भी बढ़ती जा रही हैं.

उत्तराखंड में किसान आंदोलन के सियासी असर से लेकर, लखीमपुर घटना से सिख समुदाय की नाराजगी, दलित सियासत और पार्टी नेताओं में गुटबाजी जैसी चुनौतियां बीजेपी की कुमाऊं इलाके में चिंता बढ़ रही हैं. इतना ही नहीं, कुमाऊ इलाके के नेताओं का बीजेपी से मोहभंग होता नजर आ रहा है. यही वजह है कि धामी सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे यशपाल आर्य और उनके विधायक बेटे संजीव आर्य ने बीजेपी छोड़कर कांग्रेस का दामन थाम लिया है.

आर्य की घर वापसी से बीजेपी की बढ़ी चिंता

यशपाल आर्य सीएम पुष्कर धामी के गृह जिले ऊधमसिंह नगर से ही आते हैं, लिहाजा उनका कांग्रेस में जाना बीजेपी के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है. बीजेपी ने ऊधमसिंह नगर के सियासी समीकरण को ध्यान में रखते हुए पुष्कर धामी को सूबे में सत्ता की कमान सौंपी थी. बीजेपी यह यह मानकर चल रही थी कि धामी के हाथों में सत्ता की बागडोर सौंपने से ऊधमसिंह नगर के साथ-साथ पूरे कुमाऊं बेल्ट में पार्टी की स्थिति मजबूत होगी. लेकिन यह दांव बीजेपी पर उल्टा पड़ रहा है और सबसे ज्यादा पार्टी के सामने इसी इलाके में चुनौतियां खड़ी हो गई हैं.

उत्तराखंड की सियासत में यशपाल आर्य का अपना सियासी कद है. आर्य की वापसी कराकर कांग्रेस ने सूबे में क्षेत्रीय और जातीय समीकरणों को साधने की कोशिश की. आर्य दलित चेहरा हैं और ऐसा करके पार्टी ने न सिर्फ उत्तराखंड बल्कि राज्य से बाहर भी संदेश देने की कोशिश की. वहीं, उनकी एंट्री को ऊधमसिंह नगर और नैनीताल जिले के चुनावी समीकरणों को प्रभावित करने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है. यशपाल आर्य का जिले की सियासत में तगड़ा रसूख है और जिले की आधा दर्जन सीटों पर उनका प्रभाव माना जाता है. बीजेपी छोड़कर कांग्रेस में उनके जाने से पुष्कर धामी के लिए बड़ा झटका है.

किसान आंदोलन कुमाऊं क्षेत्र पर डालेगा असर

कृषि कानून के विरोध में चल रहे किसान आंदोलन का उत्तराखंड में सबसे ज्यादा असर तराई बेल्ट पर है, जो कुमाऊ के क्षेत्र में आता है. बीजेपी के लिए किसान आंदोलन के चलते तराई इलाके की कई सीटों पर स्थितियां पहले से उतनी सुगम नहीं थीं और अब लखीमपुर की घटना से और भी खराब हो गई है. लखीमपुर में जिन चार किसानों को गाड़ी से कुचल कर मार दिया गया है, वो सभी सिख समाज से हैं.

कुमाऊ रीजन की करीब एक दर्जन सीटों पर सिख वोटर काफी अहम है. उत्तराखंड के तराई इलाकों में जसपुर, काशीपुर, रुद्रपुर, किच्छा, गदरपुर, बाजपुर, सितारगंज और नानकमत्ता तक है. उत्तराखंड के ऊधमसिंह नगर जिले की 9 विधानसभा सीटों में सिख और पंजाबी मतदाता अच्छी संख्या में हैं. इसके अलावा देहरादून और हरिद्वार के इलाके में भी सिख वोटर अहम है. सिख समीकरण को देखते हुए बीजेपी शीर्ष नेतृत्व ने सिख बहुल खटीमा से आने वाले विधायक पुष्कर सिंह धामी को उत्तराखंड की कमान सौंपकर एक संदेश देने की कोशिश की थी, लेकिन अब गणित गड़बड़ाता नजर आ रहा है.

कुमाऊं क्षेत्र में बीजेपी नेतृत्व की कमी

उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में बीजेपी के पास कोई कद्दावर नेता नहीं है, क्योंकि भगत सिंह कोश्यारी मौजूदा समय में महाराष्ट्र के गवर्नर हैं और प्रकाश पंत का 2019 में निधन हो गया. इस साल की शुरुआत में बच्ची सिंह रावत का भी निधन हो गया है. इन तीनों ही बीजेपी के नेताओं की कुमाऊं रीजन में मजबूत पकड़ रही है. ऐसे में बीजेपी ने पुष्कर धामी को सीएम और इसी क्षेत्र से आने वाले अजय भट्ट को केंद्रीय कैबिनेट में जगह देकर क्षेत्र के नेताओं को स्थापित करने की कोशिश करने का दांव चला है. इसके बाद भी अभी तक दोनों ही नेता अपना सियासी असर नहीं छोड़ सके हैं.

दूसरी तरफ, हरीश रावत कुमाऊं से राज्य में विपक्षी कांग्रेस के सबसे बड़े नेता भी हैं. कांग्रेस ने यशपाल आर्य को अपने साथ मिलाकर कुमाऊं रीजन में अपनी पकड़ को और भी मजबूत बना लिया है. ऐसे में बीजेपी के लिए लीडरशिप के स्तर भी कुमाऊं में एक बड़ी चुनौती है.

बीजेपी का गड़बड़ता दलित समीकरण

उत्तराखंड की सियासत में कांग्रेस खुलकर दलित कार्ड खेल रही है. उत्तराखंड बनने के बाद से अभी तक 10 सीएम बदल चुके हैं, लेकिन अब तक जितने भी सीएम आए ब्राह्रमण और ठाकुर जाति के ही बने हैं. ऐसे में हरीश रावत ने दलित सीएम का कार्ड खेलकर सूबे के एक बड़े वोटबैंक को साधने का दांव चला, जिसके बीजेपी के चुनौती बढ़ गई है. सूबे में अनुसूचित जाति की आबादी 18.50 फीसदी के करीब है, जो डेढ़ दर्जन सीटों पर खास असर रखते है.

उत्तराखंड में दलित वोटर देहरादून, हरिद्वार और ऊधम सिंह नगर के मैदानी इलाकों की सीटों को प्रभावित करते हैं. इस मैदानी जिलों में दलितों और मुसलमानों की आबादी लगभग 50 प्रतिशत है, जिसका सीधा असर राज्य के 70 सदस्यीय राज्य विधानसभा की 22 सीटों पर पड़ता है. कांग्रेस दलित कार्ड से सियासी समीकरणों को प्रभावित करने की तैयारी कर ली है, जिसके तहत ही यशपाल आर्य की पार्टी ने घर वापसी कराई है. यशपाल आर्य को सूबे में दलित राजनीति का चेहरा माना जाता है. ऐसे में उनके कांग्रेस में शामिल होने से बीजेपी का सियासी समीकरण बिगड़ गया है.