LAC पर तनाव मगर चीनी राष्ट्रपति की मेजबानी के लिए बेताबी! समझें कहां चूक रहा भारत

Tension on LAC but desperate to host Chinese President! Understand where India is missing
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नई दिल्ली: अप्रैल 2020 में पूर्वी लद्दाख सेक्टर में भारतीय इलाके में कब्जे की कोशिश के बाद एलएसी पर चीन की सैन्य तैनाती के जवाब में भारत की तरफ से उतनी ही तगड़ी तैनाती का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाता है। लेकिन सवाल ये है कि क्यों भारत की तरफ से मजबूत सैन्य जवाब से चीन करीब 33 महीने से चले आ रहे तनाव को खत्म करने के लिए तैयार नहीं हो रहा। यहां तक कि वह दूसरी जगहों पर भी मोर्चा खोल रहा है जैसे पिछले महीने अरुणाचल के तवांग में घुसने की कोशिश की। इस सवाल का जवाब हाल में जारी हुए द्विपक्षीय व्यापार के आंकड़ों में छिपा है। यह दिखाता है कि भारत के साथ चीन का ट्रेड सरप्लस (व्यापार अधिशेष जो व्यापार घाटा यानी ट्रेड डेफिसिट का उलट होता है) सिर्फ 1 साल में ही करीब 50 प्रतिशत बढ़ चुका है। 2021 में भारत के साथ उसका ट्रेड सरप्लस 69.1 अरब डॉलर था जो 2022 में बढ़कर 101 अरब डॉलर हो गया। ट्रेड सरप्लस का मतलब है आयात के मुकाबले निर्यात का ज्यादा होना। यानी चीन भारत से जितना आयात करता है, उससे कहीं ज्यादा वह नई दिल्ली को निर्यात करता है। चीन के साथ भारत के व्यापार घाटे यानी trade deficit का अंदाजा इस आंकड़े से लगाइए। भारत के कुल वैश्विक व्यापार घाटे में अकेले चीन की हिस्सेदारी 64 प्रतिशत है।

एक और विरोधाभास देखिए। चीन ने जबसे एलएसी पर आक्रामकता दिखाई है, तब से उसका भारत के साथ ट्रेड सरप्लस बढ़ता ही जा रहा है। ये ट्रेड सरप्लस कोई मामूली रकम भी नहीं है। ये भारत के 2021 में भारत के कुल रक्षा बजट (दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा) से भी ज्यादा है। चीन का इंटरनैशनल ट्रेड सरप्लस उसकी सुस्त हो रही अर्थव्यवस्था के लिए इंजन का काम कर रहा है। इसकी ही बदौलत वह हिमालय और हिंद प्रशांत क्षेत्र के दूसरे इलाकों में अपनी आक्रामकता दिखा पा रहा है। चीन को टोटल ट्रेड सरप्लस 878 अरब डॉलर है जिसमें 11.5 प्रतिशत का योगदान तो अकेले भारत से है।

इसका असर ये है कि भारत एक तरह से चीन की आर्थिक और भूराजनैतिक ताकत को बढ़ावा ही दे रहा है। यह दिखाता है कि किस तरह से भारत ने चीन की सैन्य धौंस की रणनीति का मुहतोड़ जवाब देने के बजाय उसे अपनी आक्रामकता को जारी रखने का जरिया दे दिया है।वैश्विक ताकत के तौर पर उभरने के लिए भारत को मैन्यूफैक्चरिंग पावरहाउस बनना ही होगा ताकि फैक्ट्रियां भारतीय युवकों को गरीबी से बाहर निकाल सकें। लेकिन चीन से बेइंतहा आयात ने रोजगार पैदा करने वाले एक अहम क्षेत्र- सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग (MSME) को तबाह कर दिया है। ‘मेड इन चाइना’ के सैलाब में ‘मेक इन इंडिया’ अभियान भी बह चुका है। चीन से चिप, घटिया सामानों जैसे गैर-जरूरी आयात तक को खत्म नहीं कर पाने से भारत न सिर्फ अपने आर्थिक हितों को नुकसान पहुंचा रहा है बल्कि प्रतिद्वंद्वी को प्लेट में सजाकर हलवा खिला रहा है।

भारत की क्रय शक्ति यानी बाइंग पावर एक बहुत बड़ी ताकत है। लेकिन मोदी सरकार की इस ताकत का फायदा उठाने की हिचकिचाहट कन्फ्यूज करने वाली चाइना पॉलिसी का सिर्फ एक पहलू मात्र है। चीन को कोई कूटनीतिक कीमत भी नहीं चुकानी पड़ रही। यहां तक की भारत चीन की आक्रामकता को लेकर उसे नेम-शेम यानी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खुलकर उसका नाम लेकर हमले से भी बचता आया है। वह भी तब जब चीन कश्मीर मुद्दे को खुलकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में उठा चुका है। महत्वपूर्ण बात ये है कि सरकार अब भी सैन्य संकट के लिए चिकनी-चुपड़ी, नरम भाषा का इस्तेमाल कर रहा है: चीन की आक्रामकता के लिए ‘यथास्थिति में एकतरफा बदलाव’; कब्जाए गए इलाकों के लिए ‘टकराव वाले पॉइंट्स’; और चीनी घुसपैठी सैनिकों और उनकी तैनाती के पीछे हटने के लिए ‘पूर्ण रूप से शांति बहाली’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल।

दुर्भाग्यवश, आक्रामकता को लेकर नरम रुख से चीन की रणनीति को ही फायदा मिल रहा। उसकी रणनीति सीमा पर संकट की गंभीरता को कम करके दिखाने की है ताकि उसका बढ़ता ट्रेड सरप्लस सुरक्षित रहे और वह ताकत का इस्तेमाल करके क्षेत्रीय यथास्थिति को बदलने की अपनी कोशिशों से दुनिया का ध्यान भटका सके। भारत की तरफ से चीन को महंगा पड़ने वाले मजबूत कदमों के बजाय चाइनीज मोबाइल ऐप को बंद करने जैसी प्रतीकात्मक कार्रवाइयों से भी बीजिंग का मन बढ़ा है।

एक तरफ हिमालय की हाड़ कंपा देने वाली भीषण ठंड के बीच 10 हजार भारतीय सैनिक तैनात हैं, दूसरी तरफ सरकार चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की इस साल दो अलग-अलग शिखर सम्मेलनों- जी-20 समिट और एससीओ समिट के लिए मेजबानी को लालायित दिख रही है। शी के दौरे से सैन्य संकट के समाधान की कोशिशें परवान चढ़ सकती हैं। लेकिन बीजिंग अपनी शर्तों पर इस तरह की किसी डील के जरिए शी की यात्रा की अहमियत का फायदा उठाने की कोशिश कर सकता है। अगर ऐसा हुआ तो वह भी भारत की भारी भूल होगी। वैसी ही भूल जैसे रणनीतिक तौर पर बेहद अहम कैलास हाइट्स को खाली करना और लद्दाख में तीन अलग-अलग जगहों को ‘बफर जोन’ मानना। दरअसल, गलवान, पैंगोंग और गोगरा-हॉट स्प्रिंग में भारत जिन ‘बफर जोन’ को मंजूर किया है, उनमें से ज्यादातर हिस्सों पर भारतीय सेना गतिरोध से पहले तक गश्त करती आई थी। वहां चीनी सैनिक गश्त पर नहीं आते थे।

चीन हिमालयी क्षेत्र में सैन्य इन्फ्रास्ट्रक्चर को तेजी से बढ़ाकर दीर्घकालिक गेम खेल रहा है। उसके नए सैन्य ठिकाने, सड़कें, हेलिपैड, इलेक्ट्रॉनिक वॉरफेयर के ठिकाने, सैन्य इस्तेमाल लायक बने सीमावर्ती गांवों को बसाने वगैरह जैसे कदम दूर की सोचकर उठाए गए हैं। जिस तरह से चीन ने दशकों से सीमा विवाद को सुलझाने में तनिक भी रुचि नहीं दिखाई है, उसी तरह उसके अंधाधुंध बन रहे बॉर्डर इन्फ्रास्ट्रक्चर बताते हैं कि वह सीमा पर शांति नहीं चाहता बल्कि भारत को उलझाने वाला मोर्चा चाहता है।

इसलिए, शी की यात्रा के दौरान कोई भी डील हो जाए, लेकिन उससे सीमा पर शांति बहाली की संभावना कम ही है। भारत के रुख से चीन को अपनी आक्रामकता का इनाम ही मिल रहा है। चाइनीज कम्यूनिस्ट पार्टी का मुखपत्र तो अप्रैल 2020 की स्थिति की बहाली की मांग को भारत की ‘अवास्तविक कल्पना’ करार दे रहा है। अब भी ज्यादा देर नहीं हुआ है। भारत के नीति-निर्माताओं और फैसले लेने वालों को अब भी चीन की असल मंशा समझ में आ जाना चाहिए। इसे स्वीकार करना होगा कि चीन को सिर्फ सैन्य ताकत से नहीं बल्कि आर्थिक समेत उपलब्ध सभी विकल्पों के इस्तेमाल के जरिए ही हिमाकत से रोका जा सकता है। जबतक उसे नुकसान नहीं होगा, जब तक उसे कीमत नहीं चुकानी पड़ेगी, तबतक वह नहीं रूकने वाला।