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Radioactive Capsule Australia: ऑस्ट्रेलिया (Australia) का एक बड़ा इलाका पिछले एक हफ्ते से एक अलग तरह के खौफ में जकड़ा हुआ था. पिछले एक हफ्ते से सिर्फ वहां के लोगों की ही नहीं ऑस्ट्रेलिया की सरकार और वहां के प्रशासन की नींद भी उड़ी हुई थी. और ये सब हो रहा था एक छोटे से कैप्सूल (Capsule) की वजह से. वैसे तो ये कैप्सूल आकार में उंगली के नाखून से भी छोटा था, लेकिन इसकी दहशत इतनी बड़ी थी कि करीब 14 किलोमीटर के इलाके में अलर्ट जारी करना पड़ा. हालांकि बाद में लंबे सर्च ऑपरेशन के बाद किसी तरह इसे ढूंढ निकाला गया. दरअसल ये कैप्सूल कोई ऐसा वैसा कैप्सूल नहीं था. ये एक रेडियोएक्टिव कैप्सूल था और ऑस्ट्रेलिया के किम्बरले से पर्थ ले जाते वक्त रास्ते में कहीं गिर गया था.
ताकतवर रेडिएशन वाला कैप्सूल
बता दें कि ये कैप्सूल 12 जनवरी को पर्थ के लिए रवाना किया गया था, लेकिन पर्थ पहुंचने के बाद 25 जनवरी को जब इसे इंस्पेक्शन के लिए खोला गया तो, जिस बॉक्स में इसे रखा गया था, वो टूटा हुआ मिला और उसके अंदर मौजूद ये कैप्सूल भी गायब था. 8 मिलीमीटर लंबे और 6 मिलीमीटर चौड़े इस कैप्सूल में कैसियम-137 नाम का रेडियोएक्टिव तत्व भरा था और इससे लगातार ताकतवर रेडिएशन निकल रहा था. और अगर कोई इंसान इसके आसपास भी आ जाता तो उसे भी नुकसान पहुंच सकता था क्योंकि इसका रेडिएशन इतना ताकतवर था, जैसे एक घंटे के अंदर किसी के 10 एक्सरे कर दिए जाएं.
छोटे से कैप्सूल ने बढ़ाई चिंता
यही नहीं अगर ये रेडियोएक्टिव कैप्सूल गलत हाथों में लग जाता तो, ये और भी खतरनाक साबित हो सकता था. इसीलिए इसे ढूंढने के लिए ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने पूरी ताकत झोंक दी. सेना उतारने के साथ न्यूक्लियर एक्सपर्ट की टीमों को भी इसे खोजने के काम में लगा दिया गया. लेकिन सबसे बड़ी चुनौती ये थी कि जिस रास्ते से इसे ले जाया गया था, वो 1400 किलोमीटर लंबा था और इतने बड़े रास्ते में एक नाखून जितने छोटे कैप्सूल को खोजना भूसे के ढेर में सुई ढूंढने से कम मुश्किल काम नहीं था.
कचरे के ढेर में मिला रेडियोएक्टिव कैप्सूल
हालांकि इस काम में रेडिएशन को पकड़ने वाले खास तरह के उपकरणों की मदद ली गई और आखिरकार इसे सड़क किनारे कचरे के ढेर से ढूंढ निकाला गया. इस कैप्सूल के अंदर जो कैसियम-137 नाम का तत्व मौजूद था, वो बीटा और गामा किरणे छोड़ता है, और इस तरह के कैप्सूल का इस्तेमाल कई तरह के उद्योगों में मटेरियल की डेंसिटी नापने के लिए किया जाता है.
हालांकि, इन्हें एक जगह से दूसरी जगह लाना ले जाना इतना आसान नहीं होता, क्योंकि इसे खास तरह के बॉक्स में ही ले जाया जा सकता है और इस दौरान सुरक्षा के नियमों का पूरी तरह पालन करना जरूरी होता है. लेकिन शायद इस मामले में ये नहीं हो पाया और रास्ते में बॉक्स टूटने की वजह से कैप्सूल रास्ते में ही कहीं गिर गया. जब तक ये मिला नहीं ऑस्ट्रेलिया की सरकार और सुरक्षा एजेंसियों की सांसें हलक में अटकी रहीं.
जाहिर है अगर ये कैप्सूल नहीं मिलता या ये लीक हो जाता, तो इसके परिणाम अच्छे नहीं होते. क्योंकि रेडियोएक्टिव तत्व 10 या 20 वर्षों तक नहीं, सैकड़ों वर्षों तक खतरनाक रेडिएशन फैलाते रहते हैं, और ये विकरण कितना खतरनाक हो सकता है, ये हम जापान के हिरोशिमा, नागासाकी और मौजूदा यूक्रेन के चेर्नोबिल में देख ही चुके हैं.
लेकिन क्या आप जानते हैं कि भारत में भी एक ऐसा ही मामला सामने आ चुका है. ये घटना आज से करीब 57 वर्ष पहले की है. वर्ष 1965 में शीतयुद्ध का दौर था और उस वक्त दुनिया अमेरिका और सोवियत रूस के बीच बंटी थी. लेकिन इसी वक्त चीन ने अपने परमाणु कार्यक्रम शुरू कर दिए. अमेरिका, चीन की इन गतिविधियों की निगरानी करना चाहता था, लेकिन उसके पास इसके लिए न तो इतने ताकतवर सैटेलाइट थे और न ही चीन के उस इलाके में उसके जासूस. ऐसे में उसने भारत से मदद मांगी. भारत और अमेरिका ने चीन की जासूसी के लिए एक खास मिशन शुरू किया. इसे ऑपरेशन हैट का नाम दिया गया.
इस बेहद क्लासीफाई मिशन के तहत, उत्तराखंड की नंदा देवी को चुना गया क्योंकि नंदा देवी उस वक्त भारत की दूसरी सबसे ऊंची चोटी थी और वहां से सीधा चीन के उस रेगिस्तान में सीधा नजर रखी जा सकती थी, जहां वो अपना परमाणु कार्यक्रम चला रहा था. चीन की जासूसी के लिए नंदा देवी में खुफिया डिवाइस लगाई जानी थी. इसमें 8 से 10 फीट ऊंचा एंटीना, दो ट्रांस रिसीवर और इन्हे पॉवर देने के लिए इनके साथ एक खास किस्म का न्यूक्लियर जेनरेटर अटैच किया गया था. इस जेनरेटर में फ्यूएल के तौर पर प्लूटोनियम के कैप्सूल यूज किए गए थे.
अक्टूबर 1965 में भारतीय सेना की अगुवाई में एक टीम नंदा देवी चोटी के करीब तक पहुंच गई. लेकिन वहां पहुंचने से पहले ही मौसम खराब हो गया. टीम के सदस्यों की सुरक्षा को देखते हुए टीम लीडर ने ये खुफिया डिवाइस और न्यूक्लियर जेनरेटर वहीं छोड़ कर वापस लौटने का फैसला लिया. बाद में अगले ही वर्ष गर्मियों में इस जेनरेटर को तलाशने के लिए सर्च ऑपरेशन भी चलाया गया. लेकिन वहां कुछ नहीं मिला और तब से ये राज हिमालय की चोटियों में दफ्न है.
पर्यावरण प्रेमियों के साथ साथ राजनेता भी सरकार से इस जेनरेटर को खोजने की मांग करते रहे हैं. क्योंकि लंबे वक्त तक इस बात का डर बना रहा कि कहीं अगर न्यूक्लियर जेनरेटर के अंदर मौजूद रेडियोएक्टिव तत्व लीक हो गए, तो वो ग्लेशियरों से निकलने वाली छोटी-छोटी नदियों के जरिए गंगा और यमुना जैसी नदियों में भी पहुंच सकते हैं और वो पूरे पानी को प्रदूषित कर सकते हैं.
देश, खासकर उत्तर भारत की एक बड़ी आबादी, उत्तराखंड के ग्लेशियरों से निकलने वाली इन नदियों के पानी के भरोसे है, ऐसे में अगर कहीं इस पानी में रेडियोएक्टिव विकरण मौजूद होता तो उसके होने वाले नुकसान का सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है. हालांकि इस पूरे इलाके में ऐसे किसी विकरण की आजतक कोई जानकारी नहीं मिली और न ही उस न्यूक्लियर जेनरेटर का ही कोई पता चला.