भोपाल। राजनीति में न स्थायी शत्रु होता है और न मित्र। अस्थायी का यह फार्मूला दिग्गजों की भूमिका और क्षेत्र पर भी लागू होता है, जिसे महज पांच साल के अंतराल पर चुनावी जमावट में मध्य प्रदेश में देखा जा सकता है। पूरे प्रदेश पर प्रभाव रखने वाले दिग्गज अपने क्षेत्र तक सीमित हैं, तो हिंदी पट्टी के बाहर जाकर रणनीति साधने वाले को मध्य प्रदेश में एक हिस्से तक सीमित कर दिया गया है। ऐसे भी दिग्गज हैं, जिन्होंने पूरे प्रदेश में खुद टिकट तय किए थे, लेकिन इस बार अपना गढ़ बचाने के लिए ही मशक्कत कर रहे हैं।
ज्योतिरादित्य सिंधिया: पिछले चुनाव में कांग्रेस और अब भाजपा से हैं मैदान में 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया अब गुना में भाजपा से प्रत्याशी हैं। पिछली बार उन्हें केपी यादव ने भाजपा के ही टिकट पर हराया था। अब सिंधिया भाजपा में हैं और उसी गुना लोकसभा सीट से भाजपा प्रत्याशी हैं। वर्ष 2020 में कांग्रेस की कमल नाथ सरकार को गिराने में सिंधिया ही सबसे बड़े किरदार थे।
नरेंद्र सिंह तोमर: प्रत्यक्ष राजनीति नहीं ग्वालियर चंबल अंचल का भी एक दमदार चेहरा लोकसभा चुनाव की सरगर्मी में भी अपने गंभीर स्वभाव के अनुरूप बिल्कुल शांत है तो वह है नरेंद्र सिंह तोमर का, जो अब विधानसभा अध्यक्ष हैं और प्रत्यक्ष राजनीति से लगभग बाहर हैं। नरेन्द्र मोदी सरकार में साढ़े नौ वर्ष तक मंत्री रहे तोमर 18 वर्ष तक मध्य प्रदेश में कोई भी चुनाव हो, अहम भूमिका में ही रहे हैं।
कैलाश विजयवर्गीय: सीमित हुई भूमिका भाजपा महासचिव रहे कैलाश विजयवर्गीय 2019 में बंगाल के प्रभारी थे, इस बार प्रदेश तक सीमित हैं। 2023 के विस चुनाव में उनकी उम्मीदवारी से पहले तक उन्होंने प्रदेश की सियासत से प्रत्यक्ष रूप से दूरी बना ली थी। मोहन यादव सरकार में मंत्री विजयवर्गीय छिंदवाड़ा में मैदानी तैयारी से संगठन के स्तर तक और केंद्रीय नेताओं के कार्यक्रमों को लेकर सक्रिय हैं।
शिवराज सिंह: विदिशा तक ही सीमित भूमिका में सबसे बड़ा बदलाव एक और बड़े चेहरे के साथ हुआ है, वह हैं शिवराज सिंह चौहान। मध्य प्रदेश में सत्रह वर्ष तक चार बार मुख्यमंत्री रहे। भाजपा के नीति निर्धारक रहे तत्कालीन मुख्यमंत्री चौहान करीब दो दशक बाद फिर से विदिशा लोकसभा सीट से भाजपा प्रत्याशी के रूप में मैदान में हैं। स्टार प्रचारक होने के बावजूद वह प्रदेश के अन्य क्षेत्र में नहीं पहुंच रहे हैं। वह अपने क्षेत्र विदिशा तक ही सीमित हैं।
प्रहलाद पटेल: पर्दे के पीछे चुनावी रणनीित में अपना योगदान देने तक सीमित केंद्रीय मंत्री रहे प्रहलाद पटेल भी अब लोकसभा चुनाव लड़ने के बजाय क्लस्टर प्रभारी हैं। मुख्यमंत्री मोहन यादव के साथ व प्रत्याशियों के नामांकन और सभा में दिखाई पड़ रहे हैं, लेकिन अपने मुख्यमंत्री मोहन यादव के समक्ष मुखर होने के बजाय गंभीरता के साथ पर्दे के पीछे चुनावी रणनीति में अपना योगदान देने तक सीमित हैं।
कांग्रेस में भी दिख रहे हैं इस बार बड़े बदलाव
पिछले चुनाव में कांग्रेस में कमल नाथ की भूमिका प्रदेशाध्यक्ष की थी, जो इस बार नेतृत्व करने की जगह मात्र छिंदवाड़ा सीट बचाने को संघर्ष कर रहे हैं। पिछले कई लोस चुनाव में कांग्रेस के टिकट उनकी ही मर्जी से तय होते थे, जबकि इस बार वह इससे कोसों दूर बताए जा रहे हैं। दिग्विजय सिंह पिछले चुनाव में भोपाल से मैदान में थे, इस बार स्वयं को राजगढ़ क्षेत्र तक सीमित कर लिया है। जीतू पटवारी, इस बार प्रदेशाध्यक्ष हैं। कांग्रेस में जारी पलायन के दौर में जीतू विषम परिस्थितियों में भी पार्टी को जीत के लिए उत्साहित कर रहे हैं। यह अलग बात है कि वरिष्ठ नेताओं का साथ मिलता नहीं दिख रहा है। अरुण यादव की पूछ परख नहीं है। नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंघार भी बदली हुई भूमिका में हैं, पर टीम जीतू में सक्रियता कम है। कांग्रेस के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष सुरेश पचौरी जैसे इस बार भाजपा के खेमे में हैं।