यूपी में मुसलमानों से बचते फिर रहे अखिलेश यादव, जानें क्या है माजरा

Akhilesh Yadav keeps avoiding Muslims in UP, know what is the matter
Akhilesh Yadav keeps avoiding Muslims in UP, know what is the matter
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लखनऊ: पीएम नरेंद्र मोदी की राजस्थान की रैली में अल्पसंख्यकों का संदर्भ लेकर दिए एक बयान पर राजनीति गर्म है। इसे ध्रुवीकरण का स्ट्रोक बताया जा रहा है। कांग्रेस चुनाव आयोग के दरवाजे पर है। लेकिन, उत्तर प्रदेश के मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव अपनी प्रतिक्रिया में ‘मुस्लिम’ शब्द तक से परहेज करते हुए ‘खास समुदाय’ लिख रहे हैं। यह परहेज अनायास ही नहीं है। पिछले चुनावों में सांप्रदायिक सवालों पर मुखर प्रतिक्रियाओं से उपजी लहर विपक्ष की उम्मीदों को बहा चुकी है। इसलिए, यूपी के चुनावी रण में विपक्ष ने ध्रुवीकरण के ‘शोर’ को थामने के लिए ‘खामोशी’ की रणनीति अपनाई है।
यूपी में पहले चरण की 8 सीटों पर चुनाव हो चुका है। दूसरे चरण की 8 सीटों पर 26 को मत पड़ेंगे। इन 16 में 13 सीटों पर अल्पसंख्यकों के वोट चुनाव की दिशा तय करने में सक्षम है। सत्तारूढ़ भाजपा इससे वाकिफ है। इसलिए, उसके चुनावी अभियान में विकास के साथ आस्था और हिंदुत्व के स्वर गूंज रहे हैं। मोदी-योगी के भाषणों में राममंदिर के निर्माण से लेकर मथुरा की ‘संभावनाएं’ तक मंच से मुखर हैं। लेकिन, अखिलेश यादव हों या कांग्रेस के चेहरे राहुल गांधी या प्रियंका, वेस्ट यूपी में अब तक उनके भाषण इन मुद्दों से दूर रहे हैं। वे आरक्षण, संविधान, रोजगार, PDA (पिछड़ा, दलित अल्पसंख्यक), भ्रष्टाचार के इर्द-गिर्द टिके हैं। यही वजह है कि ध्रुवीकरण की आग में झुलसने वाली पश्चिम की सियासत में इस बार लोगों को जाति की बयार महसूस हो रही है।

अतीत से सबक, 22 के अनुभव पर काम
वेस्ट यूपी के सपा के एक नेता कहते हैं, ‘धार्मिक ध्रुवीकरण होते ही सामाजिक समीकरण से लेकर दूसरे मसले गौण हो जाते हैं। पिछले एक दशक में विपक्ष ने इसे बखूबी महसूस किया है। 2014 में मुजफ्फरनगर दंगे, 2017 में ‘श्मशान और क्रबिस्तान’ ‘रमजान और दीपावली’ की बहस ने खूब नुकसान किया। यह बहस तभी आगे बढ़ी, जब हमारे नेताओं ने भी उस पर आक्रामक रुख अपनाया। इससे धार्मिक बंटवारा आसान हो गया। 2019 में भी यह हवा दिखी। इसलिए, 2022 के चुनाव में इन मुद्दों से परहेज की रणनीति अपनाई गई। इसका फायदा सीटों को दोगुना और वोट को डेढ़ गुना करने में मिला। इस प्रयोग पर पार्टी आगे बढ़ रही है।’

सपा नेता कहते हैं कि लोकसभा चुनाव के ठीक पहले राममंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के साथ चुनाव को आस्था के रंग में रंगने की कवायद शुरू हो चुकी थी। भाजपा ने इस पर आक्रामक रुख अपनाया। दर्शन-पूजन से परहेज करते हुए भी विपक्ष ने रुख संयमित रुखा। प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम पर भी एक खास तबके से विरोध या आक्रोश के सुर नहीं उठे, जिससे ध्रुवीकरण को हवा मिले।

चेहरे भी सजग, समर्थक भी सतर्क
विपक्षी चेहरे से लेकर समर्थक तक सांप्रदायिक विभाजन का कोई मौका नहीं देना चाह रहे हैं। हाल में माफिया मुख्तार अंसारी की मौत को विपक्ष ने अल्पसंख्यक उत्पीड़न का चेहरा जरूर दिया, लेकिन सधे स्वरों में। अखिलेश ने पहली प्रतिक्रिया में मुख्तार का नाम तक नहीं लिया। सपा के अजेंडे में मुस्लिमों को सीधे संबोधित करते हुए न कोई घोषणा हुई है और न ही टिकट वितरण में उनका वर्चस्व दिखा है। कभी अपने बयान से 2014 की राजनीति की दिशा बदलने वाले कांग्रेस उम्मीदवार इमरान मसूद का पूरा जनसंपर्क हिंदू बहुल क्षेत्रों में रहा है।

इमरान मसूद उसमें भी राम की महिमा सुनाते-बताते देखे गए। अल्पसंख्यक वोटरों ने भी अपनी चुनावी भागीदारी को लेकर खामोशी ओढ़ रखी है। 14 और 19 के चुनावों में अपने बयानों से राजनीति गर्माने वाले आजम खान जेल में हैं। ठंडी प्रतिक्रिया के चलते ध्रुवीकरण की कोशिश अब तक जोर नहीं पकड़ सकी है।

अपने मुद्दों पर टिकने की कोशिश
पहले चरण की 8 सीटों पर घटे मतदान व कुछ जगहों पर जातीय विरोध के तेज सुर ने भाजपा को चिंता में डाला है। इसलिए, अपने वोटरों को लामबंद करने व उन्हें बूथ तक ले जाने के लिए भाजपा नेताओं के स्वर संवेदनशील व भावनात्मक मुद्दों पर और आक्रामक हो गए हैं। लेकिन, जिस सपा पर अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण की तोहमत लगती है, वह इस पर जवाब देने की जगह आरक्षण खत्म करने और संविधान बदले जाने के डर को नीचे तक ले जाने में लगी है।

अखिलेश से लेकर बसपा प्रमुख मायावती तक ठाकुरों की नाराजगी को साधने में जुटे हैं। मायावती हालांकि, चुनावी मंचों से मुस्लिमों की भागीदारी का मुद्दा जरूर उठा रही हैं। लेकिन, बसपा पर तुष्टीकरण का आरोप टिक नहीं पाता, इसलिए वह मुद्दा भी नहीं बन पा रहा। हालांकि, रणनीति की सफलता का आकलन नतीजों पर ही होगा।

चुनाव और ध्रुवीकरण की जमीन
लोकसभा चुनाव 2014
चुनाव मुजफ्फरनगर दंगे के साये में हुआ था। पक्ष-विपक्ष दोनों ओर से बयानबाजी ने इस आग को और हवा दी।
अमित शाह और आजम खान की जुबानी जंग इतनी तेज हुई कि सांप्रदायिक बयानों के लिए चुनाव आयोग को कार्रवाई करनी पड़ी।
इमरान मसूद को नरेंद्र मोदी को लेकर दिए एक बयान को लेकर गिरफ्तार तक किया गया था। पहली बार यूपी से इस चुनाव में कोई मुस्लिम नहीं जीता।

लोकसभा चुनाव 2019
भाजपा से सपा-बसपा-रालोद का गठबंधन मुकाबिल था। जातीय गणित अधिक हावी दिख रहा थी, लेकिन बयानों ने ध्रुवीकरण की जमीन तैयार की।
सहारनपुर में मुस्लिमों से सीधे वोट की अपील के चलते मायावती पर 48 घंटे प्रचार पर बैन लगा। अली व बजरंग बली के बयान के चलते योगी आदित्यनाथ 72 घंटे प्रचार से रोके गए।

भड़काऊ बयान के चलते आजम पर 72 घंटे और 48 घंटे तक प्रचार न करने के दो प्रतिबंध लगे। मुस्लिमों पर टिप्पणी को लेकर मेनका गांधी पर भी 48 घंटे के प्रचार पर प्रतिबंध लगा। भाजपा गठबंधन ने 64 सीटें जीती थीं।