‘एक बेटे की सरकारी जॉब, दूसरा आर्मी में… उनको नहीं पता मैं यहां आती हूं’

'One son's government job, the other in the army... they don't know that I come here'
'One son's government job, the other in the army... they don't know that I come here'
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नई दिल्ली। दिल्ली की जीबी रोड एक ऐसी बदनाम सड़क है, जिसका नाम सुनते ही लोग नाक-भौंह सिकोड़ने लगते हैं. अंग्रेजों के जमाने में मुजरे की अपनी महफिलों के चलते अय्याशी का अड्डा बना ये इलाका अब दिल्ली-एनसीआर का सबसे चर्चित रेडलाइट एरिया है. गारस्टिन बास्टिन रोड यानी जीबी रोड का नाम तो साल 1965 में बदलकर स्वामी श्रद्धानंद मार्ग कर दिया गया लेकिन न तो इससे इलाके की पहचान सुधरी और न हालात. सच्चाई तो ये है कि यहां की सूरत-ए-हाल दिन-ब-दिन खराब ही हुई है.

मौसम चाहे कड़ाके की सर्दी का हो या झुलसा देने वाली गर्मी का, समय दोपहर के 12 बजे हों या रात के, इस रोड से गुजरने पर आपको बहुमंजिला इमारतों में खिड़की से झांकते चेहरे हमेशा दिखाई देंगे. एक ही खिड़की पर कई-कई जनाना चेहरे, जिनका मेकअप भी नकली और उसपर बिखरी मुस्कान भी, असली होगी तो बस उस चेहरे के पीछे की मजबूरी जिसे छुपाती या छुपाने की कोशिश करती वो महिलाएं इशारों से अपने ग्राहकों को लुभाती-बुलाती नजर आएंगी.

ये सभी सेक्स वर्कर हैं और इनकी इतनी पहचान ही काफी है कि इनको समाज और सिस्टम ने आखिरी छोर पर वहां खड़ा किया है जहां रोज की दुत्कार है, प्रताड़ना है, शोषण है, बदनामी है और बदइंतजामी भी है. इन महिलाओं का भी समाज और सिस्टम से जैसे भरोसा उठ गया है. वे अब अपने दम पर अपनी नियति बदलने में जुटी हैं. ज्यादातर कुछ पैसों का इंतजाम होते ही सम्मानजनक काम तलाश ले रही हैं, हालांकि कुछ ऐसी भी हैं जिन्होंने इस हाल को ही अपनी तकदीर मानकर इसके हिसाब से जीना सीख लिया है.

यहां हर उम्र की महिलाएं हैं. नई उम्र की युवतियां भले ही 15 से 20 हजार रुपये हर दिन कमा लें, लेकिन उम्र ढलते ही उपेक्षा का दायरा और बढ़ जाता है. उम्रदराज महिलाओं की कमाई यहां बहुत कम है. दिक्कत ये है कि यहां करीब 40 फीसदी महिलाएं 45 साल से ऊपर की हैं. इलाके में दो रूम ऐसे भी हैं जहां 50-55 साल से ऊपर वाली महिलाएं हैं.

इलाके के कुछ कमरों में लड़कियां खाना खुद बनाती हैं तो वहीं कुछ में खाना दिया जाता है. इसके अलावा कुछ कमरों में सुबह 10 बजे से रात दस बजे तक और कुछ कमरों में सिर्फ रात में ही लड़कियां आती हैं.

जीबी रोड कभी यहां होने वाले मुजरों के लिए जानी-पहचानी जाती था. आज भी नाम के लिए ही सही, मगर ये पहचान यहां जिंदा है. यहां डांस वाले दो कमरे हैं जहां मुजरा होता है. हॉलनुमा कमरे में मसनद के साथ बैठकी लगती है. हालांकि पुराने जमाने के मुजरे की जगह ज्यादातर फिल्मी डीजे पर बजने वाले गानों और डांस ने ले ली है.

लाहौरी गेट के पास स्थिुत सर शोभा बिल्डिंडग पॉली क्लीनिक पर आईएमडीटी और शक्तिेवाहिनी एनजीओ के सदस्य इलाके में महिलाओं के बीच हेल्थ सर्विसेज जैसे कंडोम सप्लाई और एड्स-एसटीडी अवेयरनेस जैसे काम करते हैं. यहां आईएमडीटी के तहत स्त्री व प्रसूति रोग विशेषज्ञ डॉ नगमा कमल बीते 12 सालों से इलाके के महिलाओं के स्वास्थ्य पर काम कर रही हैं. डॉ नगमा बताती हैं कि हमें यहां की दो से तीन हजार लड़कियों को स्वास्थ्य सुविधाएं और अवेयरनेस देनी होती है. लेकिन यहां पूरी तरह से नंबर काउंट करना मुश्किल है. क्योंकि कुछ लड़कियां यहां दिन में आती हैं तो कुछ केवल रात में.

वहीं, दिल्ली की सच्ची सहेली संस्था इस इलाके की महिलाओं को सर्वाइकल कैंसर का टीका दे रही हैं. ये रोग मल्टी सेक्सुअल महिलाओं में ज्यादा होता है लेकिन टीका महंगा होने के चलते ये महिलाएं खुद से इसे लगाने में सक्षम नहीं हैं. संस्था की हेड डॉ सुरभि के पहुंचते ही आउटरीच वर्कर्स जीबी रोड की कई महिलाओं को टीके लिए बुला लाती हैं.

35-36 साल की ऐसी ही एक महिला कमला (बदला हुआ नाम) अपने कमरे की दूसरी सहेली सारिका (बदला हुआ नाम) के साथ आई हैं. सारिका बताती हैं कि कमला के पांच साल का एक बेटा भी है जो उसे भी बहुत प्यार करता है. ये कमला के एक कस्टमर का बेटा है. आपके कोई बच्चा नहीं है? सवाल पर सारिका दो टूक कहती हैं, मैंने नहीं किया. उनका उलटा सवाल था अब आप ही बताओ, कस्टमर का क्या बच्चा करना. बच्चे को लाने के लिए वैसा माहौल भी तो होना चाहिए.

तो कैसे माहौल में पलते हैं जीबी रोड के बच्चे? पता चला कि जब तक बच्चा छोटा रहता है, मां पालती है. फिर उस बच्चे को हॉस्टल में रख दिया जाता है. वहीं कई औरतें अपने बच्चों को दिल्ली से दूर दूसरे शहरों में हॉस्टल में रखकर पालती हैं. बताते हैं कि कई बच्चों ने पढ़-लिखकर अपनी मां को इस दलदल से निकालकर इज्जतदार जिंदगी दी है. एक लड़का डॉक्टर बनकर अपनी मां को यहां से दूर ले गया. वहीं दो बेट‍ियों ने भी ऐसा ही किया, नौकरी लगते ही वो अपनी मां को यहां से ले गईं.

जीबी रोड में बेड़िया समाज की एक अधेड़ महिला एनजीओ से जुड़कर आउटरीच वर्कर का काम करती है. उसने बताया कि मुजरा करना उनका खानदानी पेशा है, लेकिन वो चूंकि यहां की बहू थी, इसलिए कभी उसने इस पेशे को नहीं अपनाया. उसका समाज कभी अपने घर की बहुओं को इस धंधे में नहीं उतारता.

वो बताती है कि यहां के मुजरे कभी बहुत फेमस हुआ करते थे. इलाके में शाम को कारों की कतारें लगा करती थीं. नृत्य में पारंगत महिलाओं की ख्याति दूर दूर तक थी. ऐसा नहीं है कि अब कला एकदम विलुप्त हो गई है. अब भी यहां ऐसी कलाकार महिलाएं हैं जो दुबई तक परफॉर्में करने जा चुकी हैं. उनकी कांच या तलवार की धार पर मुजरा करने की कला फेमस है.

अब किचन चलाती हूं

छोटे कद की एक अन्य महिला ने बताया कि उसने यहां 20 साल तक काम किया. लेकिन अब वो यहां से पूरी तरह से निकल चुकी है. अब वो एनसीआर में अपना किचन चलाती है. वो कहती है कि मैंने कभी किसी से शादी नहीं की. लेकिन जब मेरा बेटा बड़ा हुआ तो उसे मेरा ये काम पसंद नहीं था. उसको एक अच्छी लाइफ देने के लिए मैं यहां से निकली. मैंने बचपन में ही यहां डांस और मुजरा सीखा. लेकिन अब जब मैं करीब 40 की होने वाली हूं तो अब मुझे यह रास नहीं आता.

घर पर कुछ और बताती हूं..

डॉ

सुरभि को ऐसी ही एक महिला ने बताया कि हालात उसे यहां ले आए थे. लेकि‍न एक कस्टमर उससे प्रेम करने लगा. उसने उसे यहां से रेस्क्यू कराया और बाहर ले जाकर शादी की. जिससे उसे दो बेटे और एक बेटी हुई. महिला ने बताया कि उसका पति शराब बहुत पीता था, जिससे उसकी मौत हो गई. हालात ने उसे यहां फिर से आने पर मजबूर कर दिया. लेकिन उसने अपने बच्चों को बाहर रखकर ही पढ़ाया. उन्हें इस बात का पता तक नहीं कि वो यहां आती है. उसका एक बेटा सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहा है. वहीं दूसरा बेटा आर्मी में सेलेक्ट हो गया है. बेटी ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रही है. महिला कहती है मुझे अब बहुत बुरा नहीं लगता, क्यों‍कि मैं अपने बच्चों के लिए कुछ तो कर पा रही हूं.

डॉ सुरभि कहती हैं कि मैं इंजेक्शन लगाती हूं तो सामान्य प्रक्रिया के मुताबिक इंजेक्शन से ध्यान हटाने के लिए इनसे इनके जुड़े सवाल पूछ लेती हूं. जैसे कि कहां से हो, यहां कैसे आए, इस पर महिलाएं अपने बारे में खुलकर बताने लगती हैं. ऐसी ही कहानी एक और महिला ने बताई कि उसका कस्टमर शादी करके उसे मेरठ ले गया, आठ नौ साल उसके साथ पत्नी बनकर सामान्य जिंदगी जी. लेकिन उसकी भी शराब पीने से मौत हो गई और वो इस पेशे में आ गई. उसका एक आठ साल का बेटा है जिसे अब हॉस्टल में रख दिया गया है.

शक्तिवाहिनी एनजीओ के साथ काम करने वाली सीमा बिंदल बताती हैं कि यहां Indian Medicine Development Trust (IMDT) के साथ मिलकर हम लोग इलाके की सभी बिल्डिंग्स तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाते हैं. सेक्सुअली ट्रांसमिटेड डिजीज के बारे में इनको जागरूक करने से लेकर गर्भ निरोधक तक इनतक पहुंचाई जाती हैं. वो बताती हैं कि इस इलाके में सभी आउटरीच वर्कर्स को बिल्डिंग असाइन हैं जहां उन्हें ये सेवाएं पहुंचाने का जिम्मा होता है.