NDA में बिग बी होकर भी भाजपा इतनी नरम क्यों? कांग्रेस के खिलाफ बिछाई है बिसात

Why is BJP so soft despite having Big B in NDA? The chessboard has been laid against Congress
Why is BJP so soft despite having Big B in NDA? The chessboard has been laid against Congress
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BJP Seat Sharing Lok Sabha Election: देरी से ही सही, बिहार और महाराष्ट्र में आखिरकार भाजपा ने सहयोगियों को साध लिया है. चिराग पासवान को लेकर कई दिनों से तमाम बातें हो रही थीं. अब उन्होंने मुस्कुराते हुए तस्वीर शेयर कर लिखा है कि सीट बंटवारे को अंतिम रूप दे दिया गया है. महाराष्ट्र में भाजपा कैंडिडेट की घोषणा शुरू होने से साफ है कि वहां भी ‘ऑल इज वेल’ है. हरियाणा में अपना कद और जाट वोटबैंक वाला एंगल होने के कारण ही शायद भाजपा ने जेजेपी को अलग होने दिया. वैसे भी, गठबंधन को साथ लेकर चलना आसान नहीं होता है और भाजपा से बेहतर इसे भला कौन समझ सकता है. उधर, कांग्रेस का INDIA गठबंधन अब तक बिहार और महाराष्ट्र में सीटों की डील फाइनल नहीं कर सका है. पंजाब और बंगाल के साथी एकला चल पड़े हैं. उसकी पकड़ कमजोर हो गई है. ऐसे में आपके मन में सवाल उठ सकता है कि भाजपा क्षेत्रीय पार्टियों या सहयोगियों के साथ इतनी नरम या कहें कि फ्रेंडली क्यों है जबकि आंकड़ों से साफ है कि वह बिग बी है.

बिहार से आंध्र तक

हाल में भाजपा की गतिविधियां देखें तो उसने चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी और पवन कल्याण की जन सेना के साथ समझौता किया है. ओडिशा में बीजू जनता दल के साथ भी बात लगभग फाइनल मानी जा रही है. बिहार में नीतीश कुमार की जेडीयू से एक बार फिर हाथ मिलाया. यूपी में सपा को झटका देते हुए राष्ट्रीय लोकदल (RLD) के जयंत चौधरी को खींच लिया. सहयोगियों से हाथ मिलाते समय बीजेपी नेतृत्व ने पूरी विनम्रता दिखाई. उन्होंने सुनिश्चित किया कि नए सहयोगी को बराबरी का अनुभव हो, हालांकि हकीकत इसके उलट है. राजनीतिक घटनाक्रम पर पैनी नजर रखने वाले विश्लेषक नीलांजन मुखोपाध्याय एक लेख में कहते हैं कि बीजेपी ‘बिग बी’ की स्थिति में है.

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2014 में आया बड़ा शिफ्ट

एनडीए के गठन को पिछले साल 25 साल हो गए. हालांकि 10 साल के मोदी सरकार के कार्यकाल को देखें तो 2014 में भाजपा ने गठबंधन साझीदारों पर निर्भर रहना बंद कर दिया. इसकी वजह भगवा दल के पास पीएम नरेंद्र मोदी के रूप में मिला लोकप्रिय और करिश्माई चेहरा है. इस माहौल की तुलना अटल बिहारी वाजपेयी के समय की एनडीए सरकारों से कीजिए तो अंतर साफ दिखाई देता है. तब गठबंधन राजनीति की मजबूरी समझ में आती थी. मनमोहन सिंह सरकार ने भी इस चीज को महसूस किया था. तब 1998 से 2004 के बीच भाजपा ने राम मंदिर, 370 और समान नागरिक संहिता जैसे कोर मुद्दों से दूरी बनाकर रखी थी.

भाजपा को सर्वाइवल की चिंता नहीं

आज ऐसा नहीं है. मोदी सरकार के सामने ऐसी कोई बाधा नहीं है. भाजपा सरकार को अपने सर्वाइवल की चिंता नहीं है. जनता ने पूर्ण बहुमत दिया है. ऐसे में चिंता में पार्टनर हैं कि कहीं उनकी पोजीशन न चली जाए. तीन तलाक बिल हो, जम्मू-कश्मीर का दर्जा, सीएए और सबसे महत्वपूर्ण राम मंदिर, मोदी सरकार ने बेहिचक फैसले लिए हैं.

INDIA गठबंधन बनने के बाद सीन बदला

हालांकि पिछले एक साल में बीजेपी सहयोगियों के साथ ज्यादा नरम दिखी है. जो पहले छोड़कर चले गए थे उन्हें भी मनाने की कोशिशें हुईं. कुछ लौटे भी हैं. एक सवाल यह उठता है कि शायद बीजेपी चुनावी जीत को लेकर आश्वस्त होना चाहती हो. यह उस रणनीति का एक हिस्सा हो सकता है जिससे किसी तरह की अनिश्चितता के लिए जगह न बचे. दूसर तरफ क्षेत्रीय पार्टियां भी भाजपा से हाथ मिलाने के लिए बेचैन दिखीं क्योंकि उन्हें खुद के हाशिये पर जाने का खतरा है. ऐसे में वे बिग बी की टीम का हिस्सा बनना चाहते हैं. ऐसे में यह भी ध्यान में रखें कि करीब एक साल पहले से कांग्रेस की अगुआई में INDIA अलायंस या कहें एंटी-बीजेपी मोर्चा बनाने की सुगबुगाहट होने लगी थी.

तब मोदी ने गठबंधन पर क्या कहा था

मुखोपाध्याय लिखते हैं कि एक बार उन्हें नरेंद्र मोदी से एनडीए अलायंस के बारे में सवाल पूछने का मौका मिला था. तब वह गुजरात के सीएम थे. मोदी ने कहा था कि 1996 में जब पहली बार सरकार बनी तो केवल शिवसेना और अकाली दल साथ थे. ऐसे में सरकार 13 दिन ही चल सकी. लेकिन 1998 में पार्टी ने चुनाव से पहले ही कई पार्टनर जोड़ लिए क्योंकि जीतने की संभावना ज्यादा थी.

मोदी ने कहा था कि भाजपा की जीत की संभावना का आकलन करने के बाद ही सहयोगी आते जाते हैं. उन्होंने कहा, ‘अगर सहयोगियों को विश्वास हो जाता है कि भाजपा के साथ जुड़कर वे ज्यादा सीटें जीतेंगे तो वे आएंगे और भाजपा से हाथ मिलाएंगे. अगर उन्हें लगता है कि हम एक बोझ हैं और वे अपने दम पर चुनाव लड़कर कुछ सीटें बचा लेंगे तो वे भाजपा के साथ गठबंधन नहीं करेंगे.’

क्षेत्रीय दलों की चुनावी ताकत राष्ट्रीय दलों के साथ उनके समीकरण को भी तय करती है. जैसे तमिलनाडु में क्षेत्रीय दल 1960 के दशक के अंत से गठबंधन के लीडर रहे हैं और राष्ट्रीय पार्टियां (पहले कांग्रेस और अब भाजपा) पीछे रहती हैं. शुरू से ही देखा गया है कि इस तरह की राजनीतिक डील में विचारधारा कोई रुकावट नहीं बनती है. 1977 हो या 1989 एंटी-कांग्रेस एजेंडे ने कई दलों को एक मंच पर खींचा था.

INDIA गठबंधन का हाल

बीजेपी भले ही मजबूत हो पर वह अपने खिलाफ बनते मोर्चे से सतर्क रहती है. INDIA गठबंधन बना तो भाजपा ने इसे गंभीरता से लिया. पिछले साल मई से आज की रणनीति पर गौर करें तो भाजपा ने गठबंधन पर फोकस बढ़ाना शुरू कर दिया था. मकसद न सिर्फ एनडीए को मजबूत करना था बल्कि विपक्ष के गठबंधन को भी कमजोर करना था. बीजेपी ने छोटे-छोटे दलों को अपने साथ करना शुरू किया जिससे वे विपक्ष के साथ न जा सकें. बाद में नीतीश कुमार को इस तरफ लाना भी उसी रणनीति का हिस्सा था. आज विपक्ष का गठबंधन बिखरा दिख रहा है और एनडीए की स्थिति मजबूत है.

आज के समय में बीजेपी चाहती है कि ज्यादा से ज्यादा पार्टियां एनडीए में आएं. हां, यह भी स्पष्ट है कि गठबंधन में बीजेपी हावी ही रहने वाली है जब तक कि उसकी सीटें कम न हों.