उत्तराखंड में अप्रत्याशित नहीं है बार-बार बाढ़ की त्रासदी, आप भी समझे

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देहरादून : केरल के बाद देवभूमि उत्तराखंड में भारी बारिश ने जबरदस्त तबाही मचाई है. प्रमुख पर्यटन स्थल नैनीताल जिले के रामगढ़ में बादल फटने से हुई भीषण बारिश के बाद बाढ़, भू-स्खलन और रिहायशी घरों के गिरने से करीब आधा सैकड़ा लोगों की मौत हो गई. कुमाऊं क्षेत्न में जल ने सबसे ज्यादा तांडव मचाया.

मानसून में हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में भू-स्खलन, बादल फटने और बिजली गिरने की घटनाएं निरंतर सामने आ रही हैं. पहाड़ों के दरकने के साथ छोटे-छोटे भूकंप भी देखने में आ रहे हैं. उत्तराखंड और हिमाचल में बीते सात साल में 130 बार से ज्यादा छोटे भूकंप आए हैं. हिमाचल और उत्तराखंड में जल विद्युत परियोजनाओं के लिए बनाए जा रहे बांधों ने बड़ा नुकसान पहुंचाया है. टिहरी पर बंधे बांध को रोकने के लिए तो लंबा अभियान चला था. पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक भी हिदायतें देते रहे हैं कि गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरल धारा बाधित हुई तो गंगा तो प्रदूषित होगी ही, हिमालय का भी पारिस्थितिकी तंत्न गड़बड़ा सकता है. लेकिन कथित विकास के लिए इन्हें नजरअंदाज किया गया. इसीलिए 2013 में केदारनाथ दुर्घटना के सात साल बाद ऋषिगंगा परियोजना पर बड़ा हादसा हुआ था. इस हादसे ने डेढ़ सौ लोगों के प्राण तो लीले ही, संयंत्न को भी पूरी तरह ध्वस्त कर दिया था, जबकि इस संयंत्न का 95 प्रतिशत काम पूरा हो गया था.

उत्तराखंड में गंगा और उसकी सहयोगी नदियों पर एक लाख तीस हजार करोड़ की जल विद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं. इन संयंत्नों की स्थापना के लिए लाखों पेड़ों को काटने के बाद पहाड़ों को निर्ममता से छलनी किया जाता है और नदियों पर बांध निर्माण के लिए बुनियाद हेतु गहरे गड्ढे खोदकर खंभे व दीवारें खड़े किए जाते हैं. इन गड्ढों की खुदाई में ड्रिल मशीनों से जो कंपन होता है, वह पहाड़ की परतों की दरारों को खाली कर देता है और पेड़ों की जड़ों से जो पहाड़ गुंथे होते हैं, उनकी पकड़ भी इस कंपन से ढीली पड़ जाती है. नतीजतन तेज बारिश के चलते पहाड़ों के ढहने और हिमखंडों के टूटने की घटनाएं पूरे हिमालय क्षेत्न में लगातार बढ़ जाती हैं.

गंगा की अविरल धारा पर उमा भारती ने तब चिंता की थी, जब केंद्र में संप्रग की सरकार थी और डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्नी थे. उत्तराखंड के श्रीनगर में जल विद्युत परियोजना के चलते धारादेवी का मंदिर डूब क्षेत्र में आ रहा था. तब उमा भारती धरने पर बैठ गई थीं. अंत में सात करोड़ रुपए खर्च करने का प्रावधान करके, मंदिर को स्थांनातरित कर सुरक्षित कर लिया गया. उमा भारती ने चौबीस ऊर्जा संयंत्नों पर रोक के मामले में सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान 2016 में जल संसाधन मंत्नी रहते हुए केंद्र सरकार की इच्छा के विपरीत शपथ-पत्न के जरिये यह कहने की हिम्मत दिखाई थी कि उत्तराखंड में अलकनंदा, भागीरथी, मंदाकिनी और गंगा नदी पर जो भी बांध एवं जल विद्युत परियोजनाएं बन रही हैं, वे खतरनाक भी हो सकती हैं. लेकिन इस इबारत के विरुद्ध पर्यावरण और ऊर्जा मंत्नालय ने एक हलफनामे में कहा कि बांधों का बनाया जाना खतरनाक नहीं है. इस कथन का आधार 1916 में हुए समझौते को बनाया गया था.

इसमें कहा गया है कि नदियों में यदि एक हजार क्यूसेक पानी का बहाव बनाए रखा जाए तो बांध बनाए जा सकते हैं. किंतु इस हलफनामे को प्रस्तुत करते हुए यह ध्यान नहीं रखा गया कि सौ साल पहले इस समझौते में समतल क्षेत्नों में बांध बनाए जाने की परिकल्पनाएं अंतर्निहित थीं. उस समय हिमालय क्षेत्न में बांध बनाने की कल्पना किसी ने की ही नहीं थी. इन शपथ-पत्नों को देते समय 70 नए ऊर्जा संयंत्नों को बनाए जाने की तैयारी चल रही थी. दरअसल परतंत्न भारत में जब अंग्रेजों ने गंगा किनारे उद्योग लगाने और गंगा पर बांध व पुलों के निर्माण की शुरुआत की तब पंडित मदनमोहन मालवीय ने गंगा की जलधार अविरल बहती रहे, इसकी चिंता करते हुए 1916 में फिरंगी हुकूमत को यह अनुबंध करने के लिए बाध्य किया था कि गंगा में हर वक्त हर क्षेत्न में 1000 क्यूसेक पानी अनिवार्य रूप से निरंतर बहता रहे. लेकिन पिछले एक-डेढ़ दशक के भीतर टिहरी जैसे सैकड़ों छोटे-बड़े बांध और बिजली संयंत्नों की स्थापना के लिए आधार स्तंभ बनाकर गंगा और उसकी सहायक नदियों की धाराएं कई जगह अवरुद्ध कर दी गई हैं.

बांध बनते समय उनके आसपास आबादी नहीं होती है, लेकिन बाद में बढ़ती जाती है. नदियों के जल बहाव के किनारों पर आबाद गांव, कस्बे एवं नगर होते हैं, ऐसे में अचानक बांध टूटता है तो लाखों लोग इसकी चपेट में आ जाते हैं. उत्तराखंड व हिमाचल में भारी बारिश से पहाड़ों के दरकने और हिमखंडों के टूटने से जो त्नासदियां सामने आ रही हैं, उस परिप्रेक्ष्य में भी नए बांधों के निर्माण से बचने की जरूरत है.